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अर्थव्यवस्थाश्रीलंका

भूख की वजह से छूट रही श्रीलंकाई बच्चों की पढ़ाई

डिमुथु अट्टानायके
२० जनवरी २०२३

गरीबी और भूख की वजह से श्रीलंका के बच्चे स्कूल जाना छोड़ रहे हैं. वहां के स्कूलों ने अभिभावकों से यहां तक अनुरोध किया है कि अगर उनके पास खाना नहीं है, तो वे अपने बच्चों को न भेजें.

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आमतौर पर जिस श्रीलंका में खाने-पीने की कमी नहीं होती थी, वहां के लोगों का भूखे सोना अब सच्चाई बन चुकी है. घटते विदेशी मुद्रा भंडार की वजह से आयात होने वाली वस्तुएं महंगी हो गईं और सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर हो गईं. 
आमतौर पर जिस श्रीलंका में खाने-पीने की कमी नहीं होती थी, वहां के लोगों का भूखे सोना अब सच्चाई बन चुकी है. घटते विदेशी मुद्रा भंडार की वजह से आयात होने वाली वस्तुएं महंगी हो गईं और सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर हो गईं. तस्वीर: Eranga Jayawardena/AP/picture alliance

श्रीलंका के सबसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के समीप बसे उपनगर काटुनायके में रहने वाली कपड़ा फैक्ट्री की कर्मचारी नादिका प्रियदर्शनी अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रही हैं. इसके पीछे की वजह है भूख. उनकी माली हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वे अपने परिवार के लिए दोनों समय के भोजन का इंतजाम तक नहीं कर पा रही हैं.

देश में बढ़ते आर्थिक संकट की वजह से उनके परिवार को पेट भरने के लिए बमुश्किल से सिर्फ चावल और सब्जी का इंतजाम हो रहा है. कोई-कोई दिन ऐसा भी गुजरता है जब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होता. न तो घर में राशन होता है और न ही खाना खरीदने के लिए पैसे. इस वजह से उनके बच्चे स्कूल तक नहीं जा पाते.

यह हालत सिर्फ प्रियदर्शनी की नहीं है, बल्कि देश के एक बड़े तबके के ऊपर श्रीलंका में आए अभूतपूर्व आर्थिक संकट ने कहर बरपाया है. दसियों हजार लोगों की नौकरियां चली गई, उनके रोजगार छिन गए, और कई कारोबार दिवालिया घोषित हो गए. परिवारों को भोजन, दवा, ईंधन जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

भूखे सोना आम हो गया है

आमतौर पर जिस श्रीलंका में खाने-पीने की कमी नहीं होती थी, वहां के लोगों का भूखे सोना अब सच्चाई बन चुकी है. घटते विदेशी मुद्रा भंडार की वजह से आयात होने वाली वस्तुएं महंगी हो गईं और सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर हो गईं. 

दरअसल, अप्रैल 2021 में श्रीलंका की सरकार ने अचानक रासायनिक खाद के आयात को प्रतिबंधित कर दिया. इसका मकसद जैविक खेती को बढ़ावा देना बताया गया लेकिन किसानों के लिए यह ऐलान मुश्किल भरा था. इसकी वजह से पिछले साल देश में फसल की पैदावार 40 से 50 फीसदी कम हो गई और कीमतें बढ़ गईं.

विदेशी मुद्रा बचाने के लिए सरकार ने ऐश-ओ-आराम की चीजों के आयात पर रोक लगा दी. इस बीच यूक्रेन में युद्ध शुरू हो गया जिस कारण अनाज और तेल के दाम बढ़ गए. नतीजा यह हुआ कि सितंबर तक सालाना खाद्य मुद्रास्फीति की दर 94.9 फीसदी और मुद्रास्फीति 69.8 फीसदी तक पहुंच गई. हालांकि, दिसंबर 2022 तक इसमें थोड़ी कमी आई. खाद्य मुद्रास्फीति 64.4 फीसदी और मुद्रास्फीति 57.2 फीसदी रही.

जैसे-जैसे खाने की वस्तुओं की आपूर्ति बाधित होती गई, प्रियदर्शनी जैसे निम्न आय वर्ग के लोगों पर बोझ बढ़ता चला गया. हर दिन कमाने और शाम को मिले मेहनताने से घर चलाने वाले इन लोगों की स्थिति खराब होने लगी. इसका सीधा असर इनके बच्चों पर भी पड़ रहा है.

विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) ने श्रीलंका की स्थिति को लेकर दिसंबर में एक रिपोर्ट जारी की है. इसमें कहा गया है कि देश के 36 फीसदी परिवार खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं. वहीं, पिछले साल जून में यूनिसेफ ने कहा था कि 56,000 बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण का सामना कर रहे हैं.

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भूखे पेट कैसे होगी पढ़ाई?

जब पेट में अनाज नहीं होगा, तब पढ़ाई कैसे होगी. यही वजह है कि कई बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है. प्रियदर्शनी अपने परिवार में कमाने वाली एकमात्र सदस्य हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "जब लंच के दौरान अन्य बच्चे भोजन कर रहे होंगे, तो मेरे बच्चों के पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा. ऐसे में मैं भूखे रहने के लिए अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज सकती."

किसी दिन उनका 13 साल का बेटा यह कहकर बिना खाना लिए स्कूल चला जाता है कि वह भूख बर्दाश्त कर सकता है. वह किसी हाल में अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ना चाहता. हालांकि, प्रियदर्शनी को लगता है कि उनकी छह साल की बेटी स्कूल में भूखी नहीं रह सकती.

बच्चों के स्कूल छोड़ने में खाद्य असुरक्षा का कितना योगदान है, इसका कोई हालिया आंकड़ा मौजूद नहीं है. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र की जून की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जहां भोजन नहीं मिलता है, वहां बच्चों के स्कूल छोड़ने की आशंका ज्यादा रहती है.

यूनिसेफ के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू को जानकारी दी कि 2022 के आर्थिक संकट के बाद से श्रीलंका के कुछ इलाकों के स्कूलों में कथित तौर पर बच्चों की उपस्थिति पिछले वर्षों की तुलना में कम होकर करीब 75 से 80 फीसदी तक पहुंच गई है. उससे पहले स्कूलों में उपस्थिति का स्तर 80 से 85 फीसदी के बीच था.

शिक्षा से जुड़े विशेषज्ञ भोजन की उपलब्धता और स्कूलों में उपस्थिति के बीच के संबंध को लेकर चिंतित हैं. श्रीलंकाई शिक्षा मंत्रालय की पूर्व सचिव डॉ. तारा डे मेल कहती हैं कि छोटे बच्चों को स्कूल भेजने की शुरुआत तब की जाती है जब यह पक्का हो कि उन्हें वहां भोजन मिलेगा, खासकर ग्रामीण क्षेत्र और पिछड़े इलाकों में.

फिलहाल, तारा डे मेल 'राइज अप' नामक कार्यक्रम के लिए काम कर रही हैं. यह अनुदान के आधार पर चलने वाला कार्यक्रम है जिसके तहत स्कूली बच्चों को भोजन उपलब्ध कराया जाता है. उन्होंने कहा, "इसके तहत स्कूलों में पांच दिन गर्म और पौष्टिक भोजन मिल रहा है. इससे माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित हुए और उन्हें वाकई में राहत मिली."

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अधर में बच्चों का भविष्य

श्रीलंका के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों का कहना है कि आर्थिक संकट से कई ऐसी समस्याएं पैदा हो गई हैं जिनके कारण बच्चे स्कूल नहीं आ रहे हैं. खाने का इंतजाम करना मुश्किल हो गया है, आने-जाने का किराया बढ़ गया है और यहां तक कि पढ़ाई से जुड़ी वस्तुओं, जैसे कि पेन, किताब, कॉपी वगैरह की कीमतें बढ़ गई हैं. चाय बागानों में काम करने वाले कर्मचारियों और कोलंबो जिले के लोगों के लिए यह समस्या काफी ज्यादा गंभीर हो गई है.

सीलोन टीचर्स यूनियन के महासचिव जोसेफ स्टालिन ने डीडब्ल्यू से कहा, "बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए श्रीलंका की सरकार कोई ठोस कदम उठाती नहीं दिख रही है. अगर हालात ऐसे ही बने रहे, तो इन बच्चों का भविष्य अंधकार में डूब जाएगा."

स्टालिन ने बताया कि पोषण के लिए चलाए जा रहे सरकारी कार्यक्रम के तहत सिर्फ 11 लाख बच्चों की सहायता की जा रही है, जबकि देश के सरकारी स्कूलों में करीब 43 लाख बच्चे पढ़ते हैं. वहीं, इस मामले पर जब डीडब्ल्यू ने श्रीलंका की सरकार का पक्ष जानना चाहा, तो रिपोर्ट लिखे जाने तक उनका कोई जवाब नहीं मिला है.

कोलंबो से लगभग 10 किलोमीटर दूर थुडागपिटिया के केरावलपिटिया में रहने वाली कुमुदुनी नीलुशा संजीवनी के आठ वर्षीय बेटे की कहानी थोड़ी अलग है. वह अपने बच्चे को स्कूल सिर्फ उस दिन भेजती हैं जब उसका कोई सहपाठी उसके लिए अतिरिक्त भोजन लाता है.

वह कहती हैं, "जिस दिन सहपाठी स्कूल नहीं आता, मैं अपने बेटे को नहीं भेजती क्योंकि वह दिन भर भूखा रह जाएगा. इसके अलावा, मेरे पास किताब-कॉपी और यहां तक कि एक जोड़ी जूते खरीदने के भी पैसे नहीं हैं. उसके जूते पूरी तरह फट चुके हैं. इसलिए बेटे को घर पर ही रखती हूं." संजीवनी अकेले ही माता और पिता दोनों का फर्ज निभा रही हैं.

भूख की वजह से बेहोश हो जाते हैं छात्र

देश के पश्चिमी प्रांत में स्थित गम्पाहा जिले के एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्कूल में आने वाले कई छात्रों के परिवार की आर्थिक हालत काफी खराब है. वे बिना नाश्ता किए आ जाते हैं या दोपहर का भोजन नहीं करते हैं. ऐसे छात्र अकसर बेहोश हो जाते हैं. उन्होंने कहा, "कुछ मेधावी छात्र महीनों से स्कूल नहीं आए हैं क्योंकि वे अपने परिवारों की मदद करने के लिए खुद भी मजदूरी करने लगे हैं."

डॉ. डी मेल ने कहा कि चूंकि श्रीलंका में कक्षा में जाकर पारंपरिक तौर पर पढ़ाई करने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है, ऐसे में स्कूल न जाने का व्यापक असर बच्चों पर पड़ता है, खासकर पांच से दस वर्ष की आयु के बच्चों पर. उन्होंने कहा, "इससे बच्चों के समग्र विकास पर अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा. ऐसा भी हो सकता है कि वे सामाजिक तौर पर सशक्त न बनें."

वहीं, प्रियदर्शनी कहती हैं, "स्कूल माता-पिता से अनुरोध करते हैं कि वे अपने बच्चों को बिना भोजन के न भेजें. मेरा सवाल यह है कि अगर हमारे पास खाने के लिए कुछ है ही नहीं, तो हम क्या करें."