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कम्युनिस्ट आंदोलन की महाज्वाला बुझी

शिवप्रसाद जोशी (संपादनः अनवर जे अशरफ़)१७ जनवरी २०१०

भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एक बड़ी आवाज़ ख़ामोश हो गई है. कॉमरेड ज्योति बसु नहीं रहे. वो 95 साल के थे. लंबी बीमारी से जूझ रहे बसु को पिछले दिनों न्यूमोनिया की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती किया गया था.

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नहीं रहे ज्योति बसुतस्वीर: AP

बीटी रणदिवे यानी बीटीआर, ईमएस नम्बूदिरीपाद यानी ईमएस और हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद ज्योति बसु भारत में वामपंथी चेतना की प्रखर चौहद्दी बनाते थे. पूरा कम्युनिस्ट मूवमेंट इन चार नामों के इर्दगिर्द घूमता रहा. आज़ादी के दौर से कुछ पहले से लेकर अब तक. ज़ाहिर है भारतीय वामपंथ के लिए ये एक बहुत बड़ा ख़ालीपन है.

बसु का करिश्माः

ज्योति बसु यूं तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के उत्थान और सरकार के निर्माण के नियंता माने जाते हैं लेकिन ये उनकी राजनैतिक शख़्सियत का ही करिश्मा था कि उनकी तूती देश विदेश के बड़े नेताओं के बीच बोलती थी. दिल्ली तक उनका दबदबा था. एक समय ऐसा भी था जब इंदिरा गांधी का दिल्ली से प्रधानमंत्री के रूप में डंका बजता था तो कमोबेश उसी किस्म की गूंज मुख्यमंत्री ज्योति बसु कोलकाता से पैदा करने में समर्थ थे.

बसु अपने राजनैतिक जीवन में इतने सुघड़ और इरादों के इतने पक्के नेता थे कि कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर उनका आतंक तो था ही, कांग्रेस, बीजेपी जैसे राष्ट्रीय दलों और पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक क्षेत्रीय दलों के नेताओं के बीच भी वो अपार लोकप्रिय थे.

Buddhadeb Bhattacharya
बसु के उत्तराधिकारी बुद्धदेबतस्वीर: AP

ज्योति का महाइनकारः

और भारत के समकालीन राजनैतिक इतिहास में ज्योति बसु जिस तथ्य के लिए सबसे ज़्यादा याद किए जाते हैं वो है 1996 में प्रधानमंत्री पद लेने से उनका महाइनकार. यूं ये पार्टी का फ़ैसला था जिसे उम्र के ढलान पर बसु और सुरजीत जैसे नेताओं को पार्टी के भीतर प्रकट हो रही तेज़ तर्रार युवा टीम के आगे मानना ही पड़ा. लेकिन बसु की दाद इसीलिए दी जाती है क्योंकि वे चाहते तो पार्टी के भीतर इस पर अपने पक्ष के नेताओं को इकट्ठा कर पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति में दबाव बना सकते थे.

लेकिन उसूलों के पक्के बसु ने यह नहीं किया और यही उनके आदर्शों की जीत की मिसाल बन गया. हालांकि पार्टी और वाम मूल्यों की गहरी चिंता करने वाले बसु ही थे जिन्होंने वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर के साथ 1997 की एक बातचीत में अपने दिल का दर्द ज़ाहिर कर ही दिया.

उन्होंने कहा कि पीएम पद न लेने का पार्टी का फ़ैसला एक ऐतिहासिक और राजनैतिक चूक थी. हिस्टॉरिक बलंडर और पोलिटिक्ल बलंडर कहा उन्होंने उस फ़ैसले को. नतीजा ये हुआ कि उस समय संयुक्त मोर्चा सरकार की कमान एचडी देवेगौड़ा को सौंप दी गई. वो पीएम बने.

वकालत से राजनीतिः

1935 में ज्योति बाबू ब्रिटेन गए थे वकालत पढ़ने. 1940 में बैरिस्टर की डिग्री लेकर लौटे बसु ने कोलकाता में क़दम रखा तो उनके परिजनों ने पूछा कि आगे क्या करने का इरादा है तो बसु ने कहा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना है. उनका परिवार इस फ़ैसले पर स्तब्ध था लेकिन बसु फ़ैसला कर चुके थे.

कम्युनिस्ट जीवन की पेचीदगियों और जद्दोजहद को आत्मसात करते हुए बसु ने सीपीआई के भीतर अपनी जगह बनानी शुरू की. और धीरे धीरे वो पार्टी हायारकी में ऊपर आते गए. 1957 में ज्योति बसु पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. 1977 में ज्योति बसु की अगुवाई में राज्य में पहली वामपंथी सरकार का उदय हुआ. जो अब तक चली आ रही है जो कि एक विश्व रिकॉर्ड भी है.

बसु ने राज्य में भूमि सुधारों को लागू किया और एक नई चेतना से उस हिस्से के कृषि समाज को लैस कर दिया. उनकी कूटनीतिक कामयाबी थी एक साथ खेतिहर देहाती समाज को अपना बना देना और शहरी मध्यवर्ग को भी वामपंथ के लाल छाते के नीचे बनाए रखना.

मज़बूत मुख्यमंत्रीः

मुख्यमंत्री के रूप में ज्योति बसु भारतीय वामपंथ को मज़बूत बनाने की कोशिश ही नहीं कर रहे थे, वो भारतीय संघ बनाम राज्य के तीखे विरोधाभासों पर अंगुली रखने और केंद्र से टकराने वाले राजनेता भी थे. भारतीय गणतंत्र के 55 साल पूरे होने के मौक़े पर उन्होंने संघ बनाम राज्य की बहस उठाई थी और कहा था कि केंद्रीय सूची के तहत केंद्र को मिले अधिकार राज्य और कोनकरेंट यानी साझा सूची से ज़्यादा हैं और ये राज्यों के अधिकारों के साथ नाइंसाफ़ी है.

बसु ने इंदिरा गांधी के निर्देश पर गठित सरकारिया आयोग की भी ख़ूब ख़बर ली. उनके मुताबिक केंद्र राज्य संबंधों पर आयोग की सिफ़ारिशें नाकाफ़ी हैं. बसु का मानना था कि केंद्र की क़ब्ज़ादारी को राज्य भुगत रहे हैं क्योंकि वे प्रशासनिक और वित्तीय लिहाज़ से सीमाओं में बंधे हैं.

Wahlen Westbengalen Indien Unterstützer der Kommunistischen Partei Indiens mit Schirmen auf denen Hammer und Sichel gedruckt sind
सीपीएम को अलग पहचानतस्वीर: AP

मार्गदर्शक ज्योतिः

ज्योति बसु जीवन के सांध्यकाल में सीएम पद से रिटायर हुए, पार्टी की रोज़ की गतिविधियों से अलग हुए लेकिन पार्टी की नई पीढ़ी उनके पास मशविरे के लिए आती रही. बसु ने एक ऐसे समय में आखिरी सांस ली जब पश्चिम बंगाल में लाल दुर्ग जर्जर नज़र आता है और ममता बैनर्जी जैसी क्षेत्रीय ताकतों ने वामपंथ को उसी के औज़ारों की मदद से हराने का बीड़ा उठा रखा है.

सिंगूर और नंदीग्राम के घटनाक्रम ने कम्युनिस्टों की साख गिराई है और सुंदरबन जैसे इलाकों की दुर्दशा से कोलकाता सरकार के अरबन चरित्र और अफ़सरशाही के रवैये का पता चला है. महाश्वेता देवी जैसी क़द्दावर लेखक ने खुलेआम वामपंथी सरकार को कटघरे में खड़ा किया और जो सरकार बसु के दौर में बौद्धिको और आम लोगों के बीच एक जैसी लोकप्रिय थी वो दोनों के बीच अलोकप्रिय होती गई. और बौद्धिकों का एक बड़ा वर्ग हाल के दिनों में वामपंथी सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर चुका है.

रिकॉर्डमेकर बसुः

एक रिकॉर्ड कार्यकाल चलाने वाली वामपंथी सरकार जैसे तैसे चल रही है लेकिन ज्योति बसु जैसे वयोवृद्ध नेता पार्टी के इस हाल पर भी शायद अंदर ही अंदर दुखी और क्षुब्ध थे. उन्होंने समय समय पर कुछ टिप्पणियां भी की थीं जो उनकी पार्टी के भीतर कई लोगों को नागवार गुज़री थीं.

लेकिन अब ज्योति बसु पार्टी, देश और भारतीय राजनीति में एक बड़ा शून्य छोड़कर चले गए हैं. वो कहते थे कि आखिर इंसान ही है जो इतिहास रचता है. कई मुश्किलों और झंझावातों के बाद लोग ही आखिरकार विजयी होंगे और एक वर्गविहीन समाज में आज़ाद रह पाएंगे, जहां किसी भी तरह का कोई शोषण नहीं होगा.

एक कम्युनिस्ट के रूप में ज्योति बसु की इस मान्यता पर बहस और सवाल उठाने वालों की कमी नहीं लेकिन इस बात से इनकार शायद ही कोई करेगा कि उन्होंने अपना जीवन इस सपने को पूरा करने की कोशिश में झोंके रखा.