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कीचड़ में किस्मत तलाशते लोग

१७ मार्च २०११

दो वक्त की रोटी के लिए खाक छानना ही अब भी दुनिया के बहुत से गरीबों का मुकद्दर है. लेकिन कोलकाता में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी गुजर बसर के लिए सालों से कीचड़ में किस्मत तलाश रहे हैं.

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सुनहरी किस्मत की तलाशतस्वीर: picture-alliance/ZB

बृजलाल सुबह छह बजे ही झाड़ू और कड़ाही लेकर घर से निकल पड़ता है. हर रोज आंखों में सोने का सपना लिए वह वही काम करता है जो उसके पूर्वज लंबे समय से करते आए हैं. लेकिन आखिर वह काम है क्या. वह काम है नालियों, तालाब और नदियों में सोने और चांदी जैसी कीमती धातुओं की तलाश का. खास कर वे सुनारों के इलाके में सोने चांदी के बुरादे को ढूढते फिरते हैं.

बृजलाल का असली घर है छत्तीसगढ़ में. वहां उसके समुदाय को सौंदरिया कहा जाता है. यह शब्द सौंदर्य से बना है. इस समुदाय में विभिन्न जातियों के लोग हैं. यह काम करने वालों का नाम सौंदरिया कैसे पड़ा, इसे लेकर कई बातें हैं. लेकिन सबसे प्रमाणिक यही लगता है कि शायद सोने और चांदी जैसी कीमती चीजों की तलाश के पुश्तैनी धंधे के वजह से ही इस समुदाय का नाम सौंदरिया पड़ गया है.

कीचड़ में किस्मत

इस तबके के लोग देश के हर कोने में जाकर स्वर्णकारों के मोहल्ले के आसपास फुटपाथ पर अपना डेरा जमाते हैं. उसके बाद महिलाएं, पुरुष और छोटे बच्चे भी महीनों कीचड़ में किस्मत तलाशते रहते हैं. किस्मत अच्छी हुई तो उनके हाथ कभी-कभार सोने का कोई छोट-सा टुकड़ा लग जाता है. छत्तीसगढ़ से आए चेतराम कहते हैं कि किस्मत ने साथ दिया तो कई बार कीमती चीजें भी मिल जाती हैं. लेकिन किस्मत अक्सर साथ नहीं देती. पूरे दिन गंदी नालियों का पानी और कीचड़ साफ करने के बाद जो थोड़ा-बहुत मिलता है उससे परिवार का चलना मुश्किल है. चेतराम बताते हैं कि सोने-चांदी में किस्मत तलाशने के लिए घर-बार छोड़ कर दर-दर भटकने की वजह से उनके बच्चे भी स्कूल जाने की बजाय इसी काम में लग जाते हैं.

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धीरे धीरे शिक्षा की तरफ बढ़ रहे हैं सौंदरिया लोगों के कदमतस्वीर: AP

55 साल के रामजीत मांडवी को तो याद ही नहीं कि उन्होंने पहली बार हाथों में झाड़ू और कड़ाही कब उठाई थी. अपने पिता के साथ बचपन से यही काम करने की वजह से उन्होने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा. अब उनकी पत्नी और बच्चे भी यही काम करते हैं.

मुश्किल है गुजारा

सोने की कीमतों में तेजी आने के बाद यह काम करने वालों की मुश्किलें बढ़ गई हैं. अब सोने की दुकानों के आसपास पूरे दिन खाक छानने के बावजूद कई बार कुछ भी हाथ नहीं लगता. सोने के कारीगर अब पहले के मुकाबले ज्यादा सावधानी बरतते हैं. 70 साल के मोहम्मद शकील बताते हैं कि इस काम में अब पहले जैसी बात नहीं रही. इसलिए यह पुश्तैनी धंधा करने वाले लोग अब बच्चों को स्कूल भेजने लगे हैं ताकि वे पढ़लिख कर कोई और काम कर सकें.

इस पेशे में रहने वालों को शिक्षा और स्वास्स्थ्य जैसी मौलिक सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं. साल का ज्यादातर समय फुटपाथ पर गुजरने की वजह से पीने का साफ पानी तो एक सपना है. यह लोग दूसरी नागरिक सुविधाओं से वंचित हैं. एक से दूसरी जगह घूमते रहने और पूरे दिन गंदे पानी में रहने की वजह से उनको कई किस्म के चर्म रोगों से जूझना पड़ता है. लेकिन बीमारी की हालत में उनको नीम-हकीम का ही सहारा लेना पड़ता है.

अब नई पीढ़ी धीरे-धीरे कीचड़ की जगह अपनी किस्मत चमकाने के दूसरे विकल्प तलाश रही है. लेकिन पुरानी पीढ़ी तो अपनी इस अनूठी परंपरा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. उनको इंतजार है इस बात का कि कोई सुबह तो ऐसी आएगी जो उनके किस्मत के दरवाजे खोलेगी.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः ए कुमार

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