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दिमाग को भी घाव दे गया गुजरात

२८ फ़रवरी २०१२

वह 27 फरवरी 2002 की रात थी जब भारत का सबसे समृद्ध प्रदेश गुजरात सांप्रदायिक दंगों की आग में जलना शुरू हुआ था. दस साल बीतने के बाद भी जख्म भरे नहीं हैं.

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गुजरात दंगों के दस सालतस्वीर: picture-alliance/dpa

शुरुआत गोधरा में हुई जहां ट्रेन के एक डब्बे में आग लगा दी गई. इसमें बैठे अधिकतर लोग अयोध्या से लौट रहे थे. गोधरा से शुरू हुई आग की लपटों ने पूरे गुजरात को चपेट में ले लिया और उसके बाद शुरू हुए भयानक दंगों ने एक हजार से ज्यादा लोगों की जान ली, जिसमें से अधिकतर मुसलमान थे. कई दिनों की हिंसा के बाद सेना के हस्तक्षेप से स्थिति सामान्य हुई. लेकिन दंगों के दस साल बाद भी कई सरकारी कमीशनों के बावजूद किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सका है, किसी को सजा नहीं दी गई है.

इन दस सालों में गुजरात के दंगों पर बहुत कुछ लिखा गया. लोगों के गुस्से और नफरत के बारे में. उन दंगों ने लोगों को और समाज को हिला कर रख दिया, जिसका असर, डर लोगों के मन में अभी तक है. मनोचिकित्सक अरुणा ब्रूटा कहती हैं, "सबसे पहले तो इस तरह के सदमों से समाज पंगु हो जाता है. जब आप सामान्य होने की कोशिश करते हैं तो देखते हैं कि समाज में एक तरह का विषाद फैला है. यह एक बीमारी की तरह है, गुस्सा महामारी की तरह फैलता है. कोई कहता है, मुस्लिम खराब हैं तो कोई सिखों पर अंगुली उठाता है. आरोप प्रत्यारोपों का सिलसिला चलता रहता है. ऐसे में एक होने की भावना फिर से कैसे आए?"

मनोचिकित्सक अरुणा ब्रूटा सदमे से निबटने में सबसे बड़ी मुश्किल यह देखती हैं कि 10 साल बीत जाने के बाद भी दंगों और हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं दी जा सकी है. सूनामी या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं की तरह लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि वे मानवीय बर्बरता को भगवान की इच्छा समझ कर भूल जाएं. नतीजा विषाद, नींद न आना, डर और बताई न जा सकने वाली शारीरिक परेशानियों के रूप में सामने आता है.

बर्न यूनिवर्सिटी में काम करने वाली मानव विज्ञानी यूलिया एकर्ट 2002 से ही गुजरात में हुई घटनाओं पर शोध कर रही हैं. उन्हें इस बात से बहुत चोट पहुंचती है कि बहुसंख्यक समुदाय में गलती का अहसास नहीं है. उन्हें अक्सर ऐसे हिंदू मिल जाते हैं जिनके मन में एक प्रकार की जीत की भावना है. यह अनेकता में एकता वाली भारत द्वारा पेश की जाने वाली छवि के बिलकुल विपरीत है. जूलिया एकर्ट कहती हैं, "सतह से नीचे कुछ ऐसे विवाद हैं जिन्हें भारत की राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकता. स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले विवाद छोटे होते हैं, और उनका हल भी हो जाता है. लेकिन बड़े नरसंहारों और दंगों में राजनीतिक संगठनों की बड़ी भूमिका दिखती है."

10 Jahre Pogrome in Gujarat
तस्वीर: AP

कोई भी दंगा हो या विवाद हो, नफरत फैलाने वाले भाषणों से लोगों को उत्तेजित किया जाता है और फिर उसी नफरत और गुस्से से भरी मनस्थिति के साथ वे हिंसा में शामिल होते हैं. विशेषज्ञ परेशान हैं कि सालों से साथ रहते आए पड़ोसी और दोस्त अचानक एक दूसरे के खून के प्यासे कैसे हो जाते हैं. गुजरात के मामले में भारतीय जनता पार्टी ने दंगों का इस्तेमाल अपने हिंदू मतदाताओं को मुसलमानों के कथित खतरे का डर दिखा कर एक करने के लिए किया. दंगों में प्रांत के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका अभी भी साफ नहीं हो पाई है. उनकी बार बार इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि उन्होंने पुलिस को हस्तक्षेप न करने के निर्देश दिए. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कांग्रेस पार्टी भी इस मुद्दे पर अपने को मुसलमानों का रक्षक साबित करने की कोशिश करती रही.

मामले की जांच के लिए बना हर आयोग अलग अलग नतीजे पर पहुंचा है. यह भी कहा गया है कि साबरमती एक्सप्रेस की आग शॉर्ट सर्किट से भी लगी हो सकती है. अरुणा ब्रूटा कहती हैं कि इस तरह की घटनाओं का सबसे बुरा असर दंगा पीड़ितों के बच्चों पर होता है, वे इनसे कभी नहीं निबट पाते हैं. इसमें सबसे ज्यादा खतरा होता है नई पीढ़ी के कट्टर हो जाने का. "बच्चे इतने अनुभवी नहीं होते कि समझ सकें कि क्या हो रहा है, इसके पीछे कौन है और क्या यह राजनीति प्रेरित है. वे सिर्फ दर्द महसूस करते हैं कि मां-बाप मार डाले गए, बहन के साथ बलात्कार हुआ. वे सिर्फ यह देखते हैं कि दूसरे धर्म के लोगों ने यह किया है. इससे गुस्सा पैदा होता है जिसे दी जाने वाली सफाई और पढ़ाई भी दूर नहीं कर सकती है."

गुजरात में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए प्रयास में लगे लोग पीड़ितों की देखभाल के लिए और अधिक मनोचिकित्सकों, स्कूलों में ज्यादा बातचीत और बहुजातीय तथा बहुधार्मिक भारत के लिए राजनीतिज्ञों के सच्चे समर्थन की मांग कर रहे हैं. तभी भविष्य में भारत के सवा अरब लोगों को असुरक्षा में धकेलने वाले गुजरात जैसे सांप्रदायिक दंगों को रोका जा सकेगा.

रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न/आभा एम

संपादनः महेश झा

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