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दुनिया भर से आए मरीजों के लिए बॉन में राहत

१० मई २०११

चाहे दुख हो, कोई मानसिक बीमारी या फिर नशे की लत, डॉक्टरों को इन बीमारियों के मरीजों को ठीक करने में वक्त लगता है. और जो मरीज जर्मनी में पैदा नहीं होते, उनके लिए तो और भी मुश्किल.

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बीमारियों के बारे में उनकी समझ अलग होती है और कई बार वे डॉक्टरों से सच नहीं बताते. कई अस्पतालों में इसलिए खास विभाग बनाए गए हैं ताकि दूसरे देशों, संस्कृतियों से आ रहे लोगों का खास ध्यान रखा जा सके.
यह महिला इराक से हैं और पिछले 30 सालों से जर्मनी में रह रही हैं. उन्हें माइग्रेन यानी कई दिनों तक चलने वाले सरदर्द की परेशानी है. "50 साल से मुझे माइग्रेन है. यह बहुत ही बुरा है...हर दिन मुझे दर्द होता है"...लगभग 60 साल की यह महिला अपनी बीमारी को शब्दों में सही तरह से जाहिर नहीं कर सकती. उन्हें डिप्रेशन भी हो गया है, "जब मैं टीवी में अपने देश के बारे में कुछ देखती हूं तो मुझे दो तीन रातों तक नींद नहीं आती. और मैं इंतेजार करती हूं, पता नहीं किस चीज का, मैं इंतेजार करती हूं. इराक में कुछ होता है तो मुझे सरदर्द हो जाता है."
जिस तरह से यह महिला अपनी बीमारी के लक्षण बता रही थी, उससे डॉक्टरों को बीमारी का पता लगाने में काफी परेशानी हुई. लेकिन फिर बॉन के इंटरकल्चरल ऐंबुलेंस में उन्हें मदद मिली. बॉन के एक बड़े क्लीनिक में काम कर रहीं डॉ गेलास हाबाश कहती हैं कि जो व्यक्ति जर्मनी में पैदा नहीं हुआ है, वह अपने मानसिक तनाव को दूसरे तरीके से जाहिर करेगा. हाबाश खुद उत्तर इराक की हैं. उनके मुताबिक अरब देशों में मानसिक बीमारी वैसे भी काफी शर्मनाक मानी जाती है." मिसाल के तौर पर डिप्रेशन कहें तो इनमें से कई लोगों को समझ में नहीं आएगा. मानसिक तनाव के बारे में पूछने पर वे शारीरिक परेशानियों के बारे में बोलने लगते हैं. वे सरदर्द कहेंगे, पेट दर्द या पीठ दर्द कहेंगे."
करीब नौ सालों से बॉन में इंटरकल्चरल ऐंबुलेंस यानी एक तरह का केंद्र का काम जहां विदेशों से आए कई लोग अपनी मानसिक स्थिति मनोवैज्ञानिकों को आसानी से कह सकते हैं. डॉ हाबाश कुर्दी, अरबी और रूसी भाषा बोल रहे मरीजों के साथ बात कर सकती हैं.