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नहीं चला राजकुमारी माया के सैंडल का जादू

१२ अप्रैल २०१२

मायावती पर आधारित नाटक माई सैंडल ने सुर्खियां तो बटोरी, लेकिन उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया. नाटक मायागढ़ की राजकुमारी की कहानी बताता है जिसके मंत्री उसकी चापलूसी करते हैं.

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तस्वीर: DW

न्याय तंत्र, अर्थ तंत्र, धर्म तंत्र और राज तंत्र के पीछे राजतंत्र खड़ा है. इसके बिना सम्पूर्ण स्वराज की कल्पना अधूरी है. जनतंत्र के विश्वास के आधार पर खड़े न्याय, अर्थ, धर्म, राजतंत्र यदि जनता के साथ अन्याय करते हैं तो सत्ता परिवर्तन होना लाजमी है. ऐसे में राजा कितना ही बलशाली क्यों न हो , उसे सिंघासन खाली करना ही पड़ता है. नाटक माई सैंडल का ताना बाना अनियंत्रित हो चुके इस तंत्र के इर्द गिर्द बुना गया.

लेकिन कथानक के साथ इंसाफ नहीं हो पाया. नाटक देखकर ज्यदातर लोग निराश हुए. इस बहुप्रचारित नाटक को मायावती की सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था. सत्यपथ रंगमंडल ने 28 जनवरी को इसे स्टेज करने की अनुमति मांगी थी. तब चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता का हवाला देकर इसे रोक दिया गया था. लेकिन असली कारण मायावती ही थीं.

सृजन से गुजरा ही नहीं नाटक

लखनऊ प्रशासन का वह फैसला नाटक देखने के बाद सही लगता है. मायावती की सरकार रहते अगर इसे मंचित होने दिया गया होता तो लखनऊ के डीएम समेत न जाने कितने अफसर सस्पेंड कर दिए जाते. क्योंकि नाटक में शब्द वाणों और शारीरिक भाव भंगिमा के जरिए मायावती पर सीधा हमला किया गया है. मायावती को निशाना बनाते हुए निर्देशक मुकेश वर्मा इतना बहक गए कि कई जगह नाटक की शब्दावली चुभने लगती है. पहले इस पर प्रतिबंध लगा और हाल में यह राय उमा नाथ बली में मंचित हुआ. 50 मिनट का यह नाटक अपनी बोझिलता के कारण चर्चा में है.

कवि और वरिष्ठ रंगकर्मी विजय राय के मुताबिक मायावती सरकार में जो कुछ हुआ उस पर बहुत कुछ कहने का स्कोप है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस नाटक को साहित्यिक सृजन की प्रक्रिया से गुजरने ही नहीं दिया गया, वह भी महज सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए. अब जबकि रंगमंच आधुनिकता के दायरे में आ चुका है तो इस ताजा ताजा विषय पर प्राचीन तौर तरीके से नाटक मंचित करना ही ठीक नहीं. "अरे यह कोई कामायनी का मंचन थोड़े ही था, इसे तो बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया जा सकता था", कुछ इसी प्रकार के विचार रंगकर्मी और नाटक आलोचक राजवीर रतन के हैं. वह कहते हैं, "कथानक के साथ मजाक किया गया. मायावती पर हल्ला बोलने की क्या तुक है. इस विषय को सृजनात्मक प्रक्रिया से परिकल्पित किया जाना चाहिए था." उनके मुताबिक इसमें रचनात्मकता का घोर अभाव है. नाटक विधा से जुड़ी उर्वशी कहती हैं कि परिकल्पना के स्तर पर इसमें कोई काम नहीं हुआ लगता है. साहित्यकार रवि वर्मा तो इतने बुझ गए कि बात करने को भी तैयार नहीं हुए. अशोक कुमार पिछले दस वर्षों से नाटक कर रहे हैं, कहते हैं कि शरीर की भाव भंगिमा से काम लेने की कोशिश कथानक से मेल ही नहीं खाती है.

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मायागढ़ की माया और उनका हाथी

नाटक की कहानी आज से 500 साल पहले की दिखाई गई है . चापलूसों से घिरी मायागढ़ की राजकुमारी माया के आदेश के बिना वहा कुछ भी नहीं होता. उसके राज्य में कुछ चापलूस मंत्रियों अल्लो, बल्लो, नरकुल, चाणक्य जैसे कई मंत्री हैं जो उसका मनोरंजन करते रहते हैं. उसे प्रसन्न करने के लिए तरह तरह के उपाय तलाशते रहते हैं. राजकुमारी माया को अपने जन्मदिन पर मंहगे मंहगे उपहार लेने और मंहगी सैंडल पहनने का शौक है. उसके जन्मदिन से पहले अरब देश से एक बेहद शानदार और बहुमूल्य सैंडल मंगाई जाती है, जिसको छुपाने के लिए उसके मंत्री सैंडल को एक फल की टोकरी में रख देते हैं, क्योंकि उनको शंका है कि अगर सैंडल चोरी हो गई तो माया उनके सर कलम करवा देगी. सैंडल छुपा कर सब घूमने चले जाते हैं. लेकिन अचानक हाथी एरावत की चिंघाड़ सुनकर सभी मंत्री सकते में आ जाते हैं. एरावत राजकुमारी का पालतू जानवर है और जल्द ही मायागढ़ का राष्ट्रीय पशु घोषित होने वाला है. कारण जानने के लिए महावत को बुलाया जाता है. पता चलता है कि एरावत ने सैंडल समेत फलों की टोकरी चट कर ली है. यह सुनते ही सब चकरा जाते हैं और सैंडल निकलवाने के जतन किए जाने लगते हैं. एक वैध को बुलाया जाता है जिसकी उपस्थिति सभी को अखर रही है. मंत्री तय करते हैं कि सैंडल निकलवाने के बाद वैध को मार देंगे. लेकिन उससे पहले ही भांडा तब फूट जाता है जब एरावत अचानक लीद कर देता है और सैंडल नहीं निकलती है. लेकिन सैकड़ों घोटालों की फाइलें लीद के साथ निकल पड़ती हैं. अपने भ्रष्ट राज के खुलने के डर से मंत्री लीद को राज्य की सीमा के बाहर फिंकवा देते हैं. लेकिन राज खुल ही जाता है और विद्रोह फैल जाता है. राजकुमारी को पता चलता है तो वह आग बबूला हो जाती है और अपने सारे मंत्रियों का हाथी पर चढ़ कर वध कर देती है. पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है. राजकुमारी अपने किए पर माफी मांगती है और 'बुधम शरणम् गच्छामि....' की धुन के बीच मंच से पार्श्व में चली जाती है.

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मुद्दा सामायिक, वेशभूषा प्राचीन

राजकुमारी माया के रूप में श्रेयशी वशिष्ठ जंच नहीं सकीं. नाटक के सूत्रधार के रूप में मंच पर प्रस्तुति देने वाले मुकेश वर्मा भी कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए. यह नाटक मुकेश का ही लिखा हुआ है और उन्ही की परिकल्पना है. केवल अल्लो के रूप में शुभ गांधी के अभिनय की सभी ने जमकर तारीफ की. बाकी सभी का अभिनय औसत दर्जे का रहा. बेवजह के पार्श्व संगीत ने भी मजा किरकिरा कर दिया. एरावत की चिंघाड़ तो इतनी असहनीय लगने लगी कि कई दर्शकों ने कान पर हाथ रख लिए. नाटक देख कर निकले असरारुल हक कहते हैं, "बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का...." जबकि शैली रावत एक शब्द "बोर" कह कर आगे निकल जाती हैं.

हालांकि इसे कलात्मक भी कहा जा सकता है पर यह खप नहीं पाया. पांच सौ साल पहले की वेशभूषा में हाल ही में हुए घोटालों का वर्णन गले से उतर नहीं पाया. एनआरएचएम घोटाले में दो सीएमओ की हत्या और एक डिप्टी सीएमओ की जेल में रहस्यमय मौत के साथ ही ऐसे दर्जनों प्रकरण इस नाटक में प्रतीकात्मक रूप से दिखाए गए. इनसे लोग अभी कुछ समय पहले ही रुबरु हो चुके हैं. अखबारों में यह सब बार बार छपता रहा है. किसी कला विधा में इस सबको देखने की ख्वाहिश में उमड़ पड़े दर्शकों के हाथ मायूसी ही लगी.

रिपोर्ट: एस वहीद, लखनऊ

संपादन: ईशा भाटिया

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