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फ़ैज़ल: सड़क से सिनेमा का सफ़र

१३ फ़रवरी २०१०

बर्लिन फ़िल्म महोत्सव बर्लिनाले में दिखाई जा रही भारतीय फ़िल्मों में देव बेनेगल की रोड मूवी भी शामिल है. इस फ़िल्म के मुख्य किरदारों में से एक मोहम्मद फ़ैज़ल स्वयं रोड पर बड़ा हुआ है.

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रोड मूवी भी बर्लिनाले मेंतस्वीर: AP

देव बेनेगल की 'रोड मूवी' एक ऐसी फ़िल्म है जो नायक अभय देओल के घर से स्वतंत्र और वयस्क होने की कहानी कहती है. वयस्क होने की राह पर साथ देने वाले प्रमुख कलाकारों में रोड पर ज़िदगी जी चुका मोहम्मद फ़ैज़ल भी शामिल है.

इस समय आठवीं में पढ़ रहा फ़ैज़ल अपने परिवार के साथ सफ़र पर था, जब वह गुम हो गया था. बताता है, "पता नहीं कौन सा स्टेशन था जहां मैं गुम हो गया है. इधर उधर करता नई दिल्ली के स्टेशन पर पहुंचा." फिर फ़ैज़ल की ज़िदगी स्टेशन पर ही कटने लगी. लेकिन बेहतर दिन आने वाले थे. फ़ैज़ल बताता है कुछ दिन स्टेशन पर गुज़ारने के बाद एक दिन "किसी भैया ने देखा था मुझे, उन्होंने बोला कि सलाम बालक ट्रस्ट चला जा, वहां पर वे पढ़ाते लिखाते सब कुछ हैं, इस तरह मैं यहां पर आया."

Armut in Indien - Slum in Kalkutta Kinder Bevölkerung
तस्वीर: AP

नई दिल्ली का सलाम बालक ट्रस्ट अनाथ बच्चों को सड़कों से सामान्य जीवन में लाने की कोशिश कर रहा है, उन्हें सुरक्षा देकर, पढ़ने की सुविधा उपलब्ध करा कर और यह अहसास देकर कि कोई उनके लिए सचमुच चिंता कर रहा है. सलाम बालक ट्रस्ट की स्थापना मीरा नायर की सलाम बॉम्बे फ़िल्म की सफ़लता के बाद उसके प्रीमियर से जुटाए गए पैसों से सड़क पर रहने वाले बच्चों की मदद के लिए की गई थी.

फ़ैज़ल सौभाग्यशाली था. बच्चों को स्टेशन से ट्रस्ट के बालगृहों में लाना आसान नहीं होता. सलाम बालक ट्रस्ट की ट्रस्टी प्रवीण नायर बताती हैं, "ये बच्चे बहुत हद तक किसी पर भरोसा नहीं करते, बहुत कम ट्रस्ट करते हैं क्योंकि अपने छुटपन से ही उन्हें कोई भरोसा, कोई प्यार नहीं मिला है, न तो माता-पिता से, न तो सड़क पर, न पुलिस वालों से."

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तस्वीर: AP

लगभग दो दशकों से अधिक से इस क्षेत्र में काम कर रहा सलाम बालक ट्रस्ट इस बीच सड़क पर जीने को मजबूर बच्चों के पुनर्वास के क्षेत्र में सम्मानित संगठन है. इसलिए मुश्किल में फंसे, परिवार से बिछड़ गए या गुम हो गए बच्चों को अक्सर पुलिस वाले या फिर कोई मुसाफ़िर ट्रस्ट के दफ़्तर तक पहुंचा जाता है.

लेकिन साथ ही सलाम बालक ट्रस्ट बच्चों का भरोसा जीतने और उन्हें बच्चों के बसेरे तक लाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी इस्तेमाल कर रहा है. प्रवीण नायर कहती हैं, "हमारे जो पहले 20-25 बच्चे थे उनमें से 15-16 बच्चे हमारे साथ ही काम कर रहे हैं, सोशल वर्कर के रूप में. वे हमारे बेहतरीन राजदूत हैं." कभी ख़ुद सड़कों पर रहे इन भूतपूर्व बच्चों को नए बच्चों का भरोसा जीतने में आसानी होती है.

आठ साल से सलाम बालक ट्रस्ट के नई दिल्ली के बसेरे में रहकर पढ़ लिख रहा फ़ैज़ल इस बीच फ़िल्म करियर के प्रति गंभीर हो रहा है. वह स्वयं तो स्टेशन पर ज़िंदगी गुज़ार रहे बच्चों के बसेरे में लाने नहीं जाता, लेकिन उसे ख़ुशी है कि सलाम बालक ट्रस्ट जैसी कोई संस्था है. "मुझे अच्छा लगता है कि हम जैसे लड़कों को देखने के लिए कोई है. हम जैसे लड़कों का फ़्यूचर बन सकता है और यहां पर सलाम बालक बच्चों की देखभाल करती है, उन्हें प्रोटेक्ट करती है, एक तरह से घर की तरह रखती है. आगे चलकर उनका करियर बनाती है."
बच्चों और किशोरों को काम करते, छोटे शहरों और कस्बों के होटलों में सफ़ाई करते या कूड़ा इकट्ठा करते, देखना भारत में आम बात है. रेलवे स्टेशनों पर भी अक्सर बच्चे दिखते हैं. इनमें से कुछ बच्चे ऐसे हैं जो घर से भाग कर बड़े शहरों में पहुंचते हैं और कुछ ऐसे जो परिवार के साथ कहीं आते जाते खो जाते हैं और घर का पता नहीं बता पाते. फ़ैज़ल भी इनमें से एक है.

सलाम बालक ट्रस्ट के प्रयासों ने फ़ैज़ल जैसे बहुत से बच्चों को नई ज़िंदगी दी है. उन्हें बसेरा और सुरक्षा तो दिया ही है आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास भी कर रहा है. कम से कम दसवीं तक की शिक्षा और पढ़ाई में मन न लगने पर पेशेवर प्रशिक्षण का इंतज़ाम कर. और मुश्किल झेलकर बड़े हो रहे ये बच्चे दिखा रहे हैं कि संभावनाएं मिलें तो वे भी सब कुछ कर सकते हैं. मोहम्मद फ़ैज़ल इसका एक उदाहरण है.

रिपोर्ट: महेश झा

संपादन: ओ सिंह