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फेसबुक से फंड जुटाते भारतीय फिल्म निर्माता

१५ अक्टूबर २०११

आर्थिक संकट के इस दौर में फेसबुक और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट भारत के उभरते फिल्मकारों के लिए पैसा जुटाने का जरिया बन रही हैं. हाल ही में एक फिल्म रिलीज भी हुई है जिसमें 45 देशों के 400 लोग प्रोड्यूसर बने.

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तस्वीर: AP

संजय सूरी और ओनीर की बनाई फिल्म आई एम ने उभरते फिल्मकारों को पैसा जुटाने का एक कामयाब तरीका दे दिया है. आई एम की कामयाबी से उत्साहित संजय अपनी दूसरी फिल्म चौरंगा के लिए भी फेसबुक के जरिए ही प्रोड्यूसरों को तैयार कर रहे हैं. अब तक उन्होंने फिल्म के लिए 60 पोस्टर लगा दिए हैं. अब वह कुछ कलाकारों को जोड़ने की तैयारी में हैं.

Bollywood Schauspieler Madhuri Dixit bei einer Filmszene
तस्वीर: AP

पेरिस में रहने वाली भारतीय फिल्मकार प्रशांत नायर ने तो ऑनलाइन कम्युनिटी के साथ ही फ्रांस की सरकार से भी अपने छोटे बजट की फिल्म के लिए मदद मांगी है. प्रशांत ने फिल्म बनाने की शुरुआत डेल्ही इन अ डे से की थी. उनकी अगली फिल्म में लिलिट दूबे, विक्टर बनर्जी और कुलभूषण खरबंदा जैसे कुछ पुराने कलाकार भी हैं. प्रशांत अपनी अगली फिल्म अमरीका के लिए भी यही फॉर्मूला अपनाने की सोच रहे हैं. उनकी यह फिल्म भी दिल्ली पर ही आधारित है और अमेरिका के बारे में भारतीय लोगों की धारणाओं पर रोशनी डालती है.

13 से 20 अक्टूबर के बीच मुंबई फिल्म फेस्टिवल के दौरान अलग से इसी बारे में एक ओपन फोरम भी आयोजित किया गया. इसमें अभिनेता निर्माता संजय सूरी, फिल्म निर्देशक केतन मेहता, रूसी फिल्म निर्देशक विक्टर गाइन्सबर्ग और प्रशांत नायर जैसे लोगों ने साथ मिलकर फिल्म बनाने और कई लोगों को फंड जुटाने की प्रक्रिया में शामिल करने जैसे तरीकों पर चर्चा की.

संजय सूरी ने अपना अनुभव बताया कि स्वतंत्र रूप से काम करे वाले फिल्मकार अगर बहुत सारे लोगों से पैसा जुटाने की इस तरकीब का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए थोड़ी तैयारी करनी होगी, अपना काम पारदर्शी रखना होगा और काम को बांटने का एक निश्चित तौर तरीका इस्तेमाल करना होगा.

फिल्म बनाने के इस अनोखे तरीके के बारे में बात करते हुए केतन मेहता ने कहा कि हिमांशु रॉय पहले ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने अपनी फिल्मों के लिए पैसा जुटाने के पारंपरिक तरीकों से कुछ अलग तरीका निकाला. मेहता ने श्याम बेनेगल की फिल्म मंथन का भी जिक्र किया जिसे गुजरात के दूध उत्पादकों ने प्रोड्यूस किया था.

Sometimes Happy, Sometimes Sad
तस्वीर: Presse

रूसी फिल्मकार विक्टर गाइन्सबर्ग ने सोवियत युग के बाद के दौर के सबसे लोकप्रिय उपन्यास जेनेरशन पी पर एक फिल्म बनाई है. गाइन्सबर्ग बताते हैं कि पहले उन्होंने अपनी फिल्म में पैसा लगाने के लिए रूसी फिल्मकारों से कहा लेकिन उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया. वजह यह थी कि उनकी फिल्मों में गाली गलौज वाली भाषा का खूब इस्तेमाल हुआ है जिसे लेकर रूसी फिल्म जगत में प्रबल विरोध है. उन्होंने बताया कि बाद में उन्हें अहसास हुआ कि जब उनकी फिल्म एक विज्ञापन की दुनिया में काम करने वाले एक शख्स के बारे में है तो वह फिल्म दिखाए जाने वाले सामानों के ब्रैंड से पैसा जमा कर सकते हैं. और यही हुआ भी. अब वह वी एम्पायर नाम की एक फिल्म का सीक्वल बनाने की तैयारी में हैं. यह फिल्म भी पेलेविन के एक उपन्यास पर आधारित है.

रिपोर्टः पीटीआई/एन रंजन

संपादनः वी कुमार

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