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बर्मा में दमन नहीं अमन की बयार

२१ अगस्त २०११

लगभग आधी सदी तक दुनिया ने बर्मा यानी म्यांमार की तरफ से नकारात्मक तरंगें ही महसूस की हैं. सुर हमेशा दमन के रहे. लोकतंत्र का दमन, मानवाधिकारों का दमन, राजनीति का दमन. लेकिन अब अमन के कुछ सुर निकले हैं.

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तस्वीर: picture alliance/dpa

पिछले कुछ दिनों में म्यांमार में ऐसी घटनाएं हुई हैं जो सरकार की छवि सुधारने की कोशिशें लगती हैं. लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू ची और अन्य आलोचकों को ज्यादा जगह और आजादी दी जा रही है. बीते हफ्ते राष्ट्रपति ने भी आंग सान सू ची से पहली बार मुलाकात की. लेकिन इन सभी संकेतों से आलोचक ज्यादा संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि कुछ ठोस सुधार नजर नहीं आ रहे हैं.

शुक्रवार को राष्ट्रपति थेन शेन ने आंग सान सू ची को बातचीत के लिए बुलाया. सात साल तक घर में नजरबंद रहने के बाद पिछले साल रिहा की गईं सू ची के साथ राष्ट्रपति की बातचीत का ज्यादा ब्यौरा तो बाहर नहीं आ पाया है, लेकिन विश्लेषकों ने इसे सरकार की ओर से उठाया गया एक अहम कदम बताया है.

सू ची से बातचीत

पिछले साल नवंबर में विवादित चुनावों के जरिए चुनी गई म्यांमार की सरकार में राष्ट्रपति समेत ज्यादातर लोग सेना के ही अफसर हैं जिन्होंने चुनाव लड़ने के लिए अपनी वर्दी छोड़ी. थाईलैंड के वाहू डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट में काम करने वाले विश्लेषक आंग नाइंग ओ कहते हैं, "ये नए नेता यह संकेत देना चाहते हैं कि देश की बागडोर सेना के नहीं बल्कि उनके हाथों में है. वे देश के लिए कुछ अच्छा करते नजर आना चाहते हैं. वे यह बताना चाहते हैं कि देश में नागरिक सरकार है न कि सैन्य शासन."

हालांकि आंग इस कदम को अच्छा ही बताते हैं. वह कहते हैं कि सरकार की मंशा जो भी हो, इस तरह के कदम हालात को सामान्य बनाने के लिए बेहद जरूरी हैं.

पिछले साल नवंबर में रिहा होने के बाद से नोबेल शांति पुरस्कार विजेता सू ची ने कई बार देश के अलग अलग हिस्सों की यात्राएं की हैं. हालांकि उन्हें सरकार ने राजनीतिक यात्रा करने से आगाह किया था. जून में सरकार ने सू ची को कहा था कि उनकी राजनीतिक यात्रा देश में अव्यवस्था और दंगों की वजह बन सकती है. लेकिन सरकार की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए इसी महीने उन्होंने पहली बार राजनीतिक यात्रा भी की. एक दिन की इस यात्रा के दौरान उन्हें लोगों का भारी समर्थन मिला.

इस यात्रा के बाद सरकार के कुछ ज्यादा सख्त होने की आशंका जताई जा रही थी. लेकिन उसके उलट राष्ट्रपति ने सू ची को मिलने के लिए बुलाया. इससे पहले सू ची ने श्रम मंत्री के साथ दो दौर की बातचीत की.

छवि सुधारने की कोशिश

अधिकारी सू ची को अपनी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को कानूनी तौर पर रजिस्टर कराने के लिए भी कह रहे हैं. सू ची की पार्टी को पिछले साल चुनावों का बहिष्कार करने की वजह से भंग कर दिया गया था. इसलिए संसद में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. वैसे उनकी पार्टी ने 1990 में आम चुनाव जीत लिया था लेकिन सैन्य शासन ने कभी उसे सत्ता में नहीं आने दिया.

पिछले साल सैन्य शासन ने देश में आम चुनाव कराने का फैसला किया जिसे लोकतंत्र की तरफ बर्मा के पहले कदम के रूप में प्रचारित किया गया. हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उन चुनावों से ज्यादा संतुष्ट नहीं है. लेकिन अब सरकार कई तरह से ऐसे कदम उठा रही है, जो छवि सुधारने के संकेत माने जा सकते हैं. मसलन सरकार ने जातीय विद्रोहियों के साथ शांति वार्ता शुरू करने की बात कही है. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार दूत ओएजा क्विनताना को भी देश की यात्रा की इजाजत दी गई है. वह इसी हफ्ते बर्मा की यात्रा करेंगे और अधिकारियों से मुलाकात करेंगे.

अमेरिका में रहने वाले म्यांमार के शिक्षाविद विन मिन इन कदमों को बहुत ज्यादा तवज्जो देने से बच रहे हैं. वह कहते हैं, "सरकार के रवैये में सुधार तो हुआ है लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगी कि ये कदम वाकई सुधार की ओर उठ रहे हैं या सिर्फ दिखावा हैं."

बदलाव तो है

विन मिन मानते हैं कि नया नेतृत्व विपक्ष की कुछ गतिविधियों को सहन करने के लिए तैयार है और विकास के मुद्दों पर ज्यादा सहयोग कर रहा है, लेकिन वह कहते हैं कि ऐसा क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा मान्यता हासिल करने के लिए भी हो सकता है.

पश्चिमी देशों ने म्यांमार पर कई तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं. ये देश बर्मा में कई सुधारों की मांग करते हैं जिनमें जेलों में बंद लगभग 2000 राजनीतिक बंदियों की रिहाई भी शामिल है. इसके अलावा मानवाधिकारों की हालत सुधारना एक अहम अंतरराष्ट्रीय मांग है.

शीन सरकार 2014 में एशियाई देशों के संगठन आसियान की अध्यक्षता पाने पर निगाह बनाए हुए है. देश में 2015 में आम चुनाव होंगे. लेकिन आलोचक कहते हैं कि जिस देश पर लगभग आधी सदी तक सेना का राज रहा हो, वहां कहीं ज्यादा बड़े और गहरे सुधारों की जरूरत होगी. एक विश्लेषक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, "हमें यह कल्पना करते हुए भी सावधान रहना चाहिए कि बर्मा जैसे देश में रातों रात कोई सुधार हो जाएगा. लेकिन इतना कहा जा सकता है कि यह सुधारों की दिशा में कल्पना से ज्यादा तेज चल रहा है."

रिपोर्टः एजेंसियां/वी कुमार

संपादनः एन रंजन

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