देश नहीं, पहचान नहीं...जीना यूं आसान नहीं
१ सितम्बर २०११संयुक्त राष्ट्र ने एक ऐसी कैंपेन की शुरुआत की है जो करीब 1.2 करोड़ राष्ट्रीयता विहीन लोगों के साथ हो रहे भेदभाव को उजागर करती है. किसी भी देश का नागरिक न होने के कारण ये लोग अक्सर कानूनी पचड़े में फंसते हैं और मौलिक अधिकारों से वंछित रहते हैं.
पिछले साल जून में दक्षिणी किर्गिस्तान में उज्बेक और किरगिज लोगों के बीच अंतर्जातीय संघर्ष हुआ जिसमें सैकड़ों लोगों की मौत हुई. हजारों लोगों को शरणार्थी कैंपों में रहना पड़ा. दुकानें और घर लूट लिए गए. इसी हिंसा की पीड़ित हैं ओफ्टोबॉय कादीबायेवा. हिंसा में इनका मकान और सामान पूरी तरह से बर्बाद हो गए. इस हिंसा में कादीबायेवा, उनके पति और चार बच्चों के सोवियत संघ के समय के बने पासपोर्ट भी बर्बाद हो गए. इन लोगों का पासपोर्ट तब बना था जब किर्गिस्तान सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था. बिना पहचान के पूरा परिवार रातों रात अपने ही देश में विस्थापित हो गया.
अपने ही देश में पहचान नहीं
दस्तावेजों की कमी के कारण कादीबायेवा का परिवार रातों रात कानूनी पचड़ों में फंस गया. कादीबायेवा अपने बच्चों के लिए दस्तावेज इकट्ठा कर पाने में नाकाम रहीं. इनमें से एक बच्चा मानसिक रूप से विकलांग है. दस्तावेज के लिए भटकती कादीबायेवा डॉयचे वेले से बातचीत में कहती हैं, "मैं राष्ट्रीयता विहीन हूं और मेरे पास पासपोर्ट नहीं है. इस वजह से मुझे अपने बच्चों के दस्वतावेज को अपडेट कराने में परेशानी आ रही है. दूसरी बात यह है कि मेरी बेटी का सामाजिक भत्ते वाला दस्तावेज भी अब वैध नहीं है. वह सब मुझे नए सिरे से बनवाना होगा. लेकिन मेरे पास पासपोर्ट नहीं है. इस वजह से यह एक बड़ा मुद्दा है."
कादीबायेवा ने यूएनएचसीआर की मदद से बर्बाद हुए अपने घर को बनाया है लेकिन संपत्ति अधिकारों का दावा करने में असमर्थ हैं. परिवार को स्कूली शिक्षा, कल्याण लाभ और स्वास्थ्य सेवा नहीं मिल पा रही है. कादीबायेवा के मुताबिक, "क्योंकि मैं किसी भी देश की नागरिक नहीं हूं और न ही मेरे पास कोई दस्तावेज है, इस कारण मैं अपने सबसे छोटे बेटे का जन्म प्रमाण पत्र नहीं बनवा पा रही हूं. मैं स्वास्थ्य सेवाओं का भी लाभ नहीं ले पा रही हूं."
नागरिकता को तरसते लोग
कादीबायेवा अकेली नहीं हैं. इस तरह से दुनिया भर में 1.2 करोड़ लोग हैं जो बिना किसी पहचान के जी रहे हैं. यह लोग किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था कहती है कि उन लोगों को नौकरी, घर, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से वंछित रखा जा सकता है. क्योंकि वह साबित नहीं कर सकते कि वह किस देश के नागरिक हैं और कहां से नाता रखते हैं. एक और बड़ी समस्या यह है कि वह किसी बाहरी देश की यात्रा नहीं कर सकते और न ही चुनाव में भाग ले सकते हैं. इन लोगों को पेंशन लेने या विवाह, जन्म, और संपत्ति रजिस्ट्रेशन कराने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.
संयुक्त राष्ट्र ने अब राष्ट्रीयता विहीन लोगों के साथ हो रहे भेदभाव को उजागर करने के लिए एक वैश्विक अभियान की शुरुआत की है. इसके तहत देशों को बढ़ावा देना है जो राष्ट्रीयता विहीन लोगों को पहचान दें और कानून बनाकर ऐसे लोगों को नागरिकता का दर्जा प्रदान करे. क्योंकि यूएनएचसीआर के इस करार की शुरुआत 1961 में हुई थी. अब तक 193 सदस्य देशों में से 38 ने इसे मंजूर किया है.
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनएचसीआर) की सहायक उच्चायुक्त एरिका फेलर के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय एजेंडे में यह समस्या उतनी रोशनी में नहीं है क्योंकि इस तरह के लोग गुमनामी में रहते हैं. एक तरह से वह ऐसी सीमा पर रहते हैं जहां किसी देश का कब्जा नहीं होता है. एक रूप में वह अदृश्य रहते हैं.
मौत के बाद भी पहचान नहीं
अपने बुनियादी मानव अधिकारों का प्रयोग करने में असमर्थ राष्ट्रीयता विहीन लोगों के दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है. फेलर कहती हैं कि राष्ट्रीयता विहीन होने का मतलब है कि बच्चों की तस्करी का खतरा बढ़ जाता है. वे आसानी से गायब हो जाते हैं क्योंकि उनका तो कोई रिकॉर्ड ही नहीं है. इसके अलावा राष्ट्रीयता विहीन लोगों का गुलामी, वेश्यावृत्ति, पुलिस उत्पीड़न, सशस्त्र बलों में भर्ती और अन्य गलत कामों में इस्तेमाल होता है. फेलर कहती हैं, "आप राष्ट्रीयता विहीन होकर मर सकते हैं और आपके मरने का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलेगा क्योंकि आपका तो कोई वजूद ही नहीं हैं."
किसी भी देश की नागरिकता न होने की समस्या खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, पूर्वी यूरोप और मिडिल ईस्ट में गंभीर रूप से है. लेकिन संस्था के मुताबिक दुनिया भर में यह समस्या फैली हुई है.
आशा की किरण
ओफ्टोबॉय कादीबायेवा को उम्मीद है कि पासपोर्ट मिलने के बाद वह पूर्ण रूप से किर्गिस्तान की नागरिक बन जाएंगी. लोगों की नागरिकता खोने का सबसे बड़ा कारण है देशों का विलयन होना, नए देशों का गठन और सीमा का नए सिरे से बनना. यूएनएचसीआर की राष्ट्रीयता विहीन यूनिट के प्रमुख मार्क मैनले के मुताबिक 1990 में सोवियत संघ के टूटने के बाद दुनिया की आधी राष्ट्रीयता विहीन लोगों की आबादी ने अपनी पहचान खो दी. मैनले बताते हैं कि अब हालात में सुधार हुआ हैं. उनके मुताबिक, "मुझे लगता है कि यह बताना महत्वपूर्ण है कि बहुत सारे लोग जो मूल रूप से राष्ट्रीयता विहीन थे उन्होंने नागरिकता पा ली है."
मदद से नागरिकता
फिलहाल हाशिए पर जी रहीं कादीबायेवा को उम्मीद है कि उनके भी दिन बदलेंगे और उन्हें पहचान मिलेगी. यूएनएचसीआर के साथ काम करने वाला एक एनजीओ कादीबायेवा की मदद कर रहा है. एनजीओ उनकी कानूनी मदद भी कर रहा है. कादीबायेवा डॉयचे वेले से कहती हैं, “मुझे आशा है कि मैं अपने दस्तावेज पा सकूंगी, अपना पासपोर्ट पा सकूंगी. जब मेरे पास दस्तावेज हो जाएंगे तो मुझे उम्मीद है कि मेरी जिंदगी बदल जाएगी.”
रिपोर्ट:लिजा श्लाइन/सोनिया फालनीकर/आमिर अंसारी
संपादन: वी कुमार