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यूपी का सियासी उद्योग 'चुनावी प्रचार'

३१ दिसम्बर २०११

चुनाव, भारत में इस शब्द का इस्तेमाल होते ही मौसमी चुनाव प्रचार जेहन में आता है. लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार स्थायी हो चुका है. चुनाव प्रचार चुनाव आयोग को ठेंगा दिखाते हुए एक उद्योग की शक्ल ले चुका है.

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तस्वीर: Suhail Waheed

चुनावों की तारीखों का एलान होते ही हर तरफ सन्नाटा सा छा गया. पोस्टर, बैनर, होर्डिंग्स, झंडे, कट-आउट्स आदि सड़कों-दीवारों से हटा लिए गए. शोर कम हो गया, अख़बारों में पूरे पूरे पेज के छप रहे विज्ञापनों की जगह ख़बरें दिखने लगीं. लोग मजाक कर रहे हैं कि चुनाव शुरू हुए हैं या खत्म हो गए. दरअसल चुनाव आयोग की सख्ती ने सारा माजरा उलट दिया है. पहले चुनाव की तारीखों की घोषणा एलान-ए-जंग का अहसास कराती थी पर अब नेताओं को अनुशासित करती है. आम आदमी चुनाव आयोग की इस ताक़त की बड़ी तारीफ करता है.

चुनाव आयोग की इस सख्ती का चुनाव बाजार को बड़ा फायदा पहुंचा है. पहले जो प्रचार चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद शुरू होता था वह अब साल भर पहले ही शुरू हो जाता है. राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों का खर्च इसीलिए और बढ़ गया है. एक अनुमान के मुताबिक सरकार और राजनीतिक दलों के इस खर्च का दायरा इस चुनाव में 700 करोड़ रपये पार करने जा रहा है. चुनाव के इस खर्च से बाजार का एक तबका बहुत खुश है क्योंकि चुनाव का काम सीजनल न रहकर परमानेंट हो गया है. चुनाव के समय लगने वाली दुकानों के अब तम्बू नहीं उखड़ते.

लखनऊ में पिछले 25 वर्षों से प्रचार सामग्री का कारोबार करने वाले नारायण उर्फ पंडित जी की शीला इंटरप्राइजेज समाजवादी पार्टी कार्यालय के सामने अब परमानेंट हो चुकी दुकान है. वह बताते हैं कि ऐसा पिछले दस साल से हुआ है, पहले ये काम दो ढाई महीने का हुआ करता था, अब साल भर का हो गया है. उनके इस कारोबार का सालाना टर्न ओवर करीब 55 लाख है. पंडित जी हर पार्टी की प्रचार सामग्री बेचते हैं. कहते हैं, "जब तब कोई चुनाव होता ही रहता है तो दुकान बंद करने का क्या मतलब. विधान सभा के बाद निकाय चुनाव होंगे और तब तक लोकसभा के चुनाव का माहौल बन जाएगा." यही वजह है कि बीजेपी के कार्यालय परिसर में और कांग्रेस-बीएसपी कार्यालयों के आस पास प्रचार सामग्री की बड़ी बड़ी दुकानों ने स्थायी ठिकाना बना लिया है.

Mayawati
तस्वीर: UNI

चीनी कागज की लाल टोपी

राजनीति में टोपी का खास मुकाम है, खासकर सपा में. उनकी लाल टोपी की मांग काफी है. एक टोपी दो रुपये की बिक रही है. यह वही टोपी है जो 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले सपा के आगरा सम्मलेन में कल्याण सिंह को पहनाई गई थी जिससे सपा का वोट बैंक बिखर गया था और उसको काफी बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था. पंडित जी के मुताबिक ये कपडे जैसे चिकने चीनी कागज की बनती है इसीलिए दो रुपये की पड़ रही है. अगर भारतीय कपडे की बने तो इसकी लागत 10 रुपये प्रति आएगी, तब इतनी नहीं बिकती.

फ्लैक्स ने सभी को पछाड़ा

देखते ही देखते लखनऊ में करीब 200 फ्लैक्स मशीने लग गईं. इस पर बन्ने वाले होर्डिंग की छपाई 10 रुपये वर्ग फुट से घटकर 5-6 रुपये स्क्वायर फुट रह गई. हर नेता ने प्रचार के लिए सबसे ज्यादा इसी का इस्तेमाल किया. इसी के कट आउट्स बनवाए. चौधरी इंटरप्राईजेज के मालिक शाहिद चौधरी ने सबसे पहले यहां फ्लैक्स मशीन लगाईं .बताते हैं कि ये साल शुरू होते ही नेताओं के होर्डिंग्स बनने लगे थे. पूरे साल में लगभग 75 करोड़ का कारोबार हुआ. लखनऊ से दूर अलीगढ में दो, आगरा में करीब 3०, मेरठ में 20, एटा में 2, गोरखपुर में 15 और वाराणसी में 15 फ्लैक्स मशीनें चुनाव के काम के लिए ही लग गईं और सभी ने खूब कमाया. वाराणसी के कमल बंसल का कहना है कि मशीन की कीमत दो साल में निकल आई. उन्हें ये जापानी मशीन 25 लाख रुपये की पड़ीं. इसकी खासियत यह है कि इसकी छपाई सस्ती और टिकाऊ होती है क्यूंकि इसमें कपडे कि जगह सिंथेटिक पेपर इस्तेमाल होता है.

मारे गए पेंटर बाबू

फ्लैक्स के बढ़ गए सस्ते बाजार ने वाल राइटिंग करने वाले पेंटरों को भूखा मरने पर मजबूर कर दिया. जो कट आउट्स पर अपनी कला दिखाते थे वह भी बेरोजगार हो गए. कपड़े वाले बैनर भी अब हवा में नहीं लहराते. सदर के सलाहुद्दीन गुजरे चुनावों का जमाना बड़ी हसरत से याद करते हैं, "अरे जनाब इलेक्शन की कमाई से चार-पांच साल घर चलाते थे, कई कई लाख का पेमेंट होता था, दो तीन महीनों तक सोते ही कहां थे, सिर्फ काम करते थे. इस फ्लैक्स ने सब चौपट कर दिया." यही नहीं स्टील फैब्रिकेटिंग का काम करने वाले शकील भी फ्लैक्स के सताए हुए हैं. अब उनके लिए चुनाव बेमानी है, काम ही नहीं मिलता.

आयोग की सख्ती करीब 300 करोड़ की

यूपी का यह चुनाव शायद अब तक का सबसे मंहगा चुनाव साबित होने वाला है. इसकी व्यवस्था पर सरकार लगभग 300 करोड़ खर्च करेगी ताकि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव संपन्न हो सके. इस खर्च में केन्द्रीय बालों पुलिस का खर्च भी शामिल है. पिछले विधान सभा चुनाव व्यवस्था पर करीब 80 करोड़ रुपये खर्च हुए और केन्द्रीय बलों की आवाजाही पर 127 करोड़ का खर्चा आया था. सबसे ज्यादा खर्च पेट्रोल, डीजल पर आता है. पिछले पांच वर्षों में पेट्रोल डीजल के दाम लगभग दो गुने हो चुके हैं, जाहिर है कि खर्च भी इसी हिसाब से बढेगा. चुनाव में कई लाख छोटे-बड़े वाहन ड्यूटी में लगते है. इस बार मतदाता संख्या 11.11 करोड़ से बढ़कर 12 करोड़ 58 लाख हो गई है, इस हिसाब से 900 पोलिंग स्टेशन बढ़ेंगे तो बंदोबस्त भी बढेगा. यही नहीं फ्लाइंग स्क्वॉड, सर्विलांस, वीडियोग्राफी टीमें और हर जगह पोलिंग पार्टी के आलावा पर्यवेक्षकों का आना जाना.

Mulayam Singh Yadav
तस्वीर: UNI

नेताओं का भी यही रोना है

आम तौर पर एक विधानसभा क्षेत्र करीब दो लाख मतदाताओं की आबादी पर बनता है. अपने क्षेत्र में हर वोटर से संपर्क के लिए एक प्रत्याशी औसतन 10 वाहनों का प्रयोग हर दिन करता है. हर वाहन प्रतिदिन औसतन 250 किलोमीटर चलता है. सीतापुर विधान सभा क्षेत्र से सपा प्रत्याशी के प्रतिनिधि इमरान कहते हैं, "पिछले आठ महीनो से 16 वाहनों से प्रचार हो रहा था, एक वाहन का रोजाना का खर्चा ड्राइवर और 8-10 समर्थकों समेत करीब 5,000 रुपये आता है. अब आप खुद हिसाब लगा लीजिये कि कितना मंहगा है चुनाव लड़ना." उनके इस हिसाब से 403 विधानसभा क्षेत्रों में औसतन चार बड़ी पार्टियों के प्रत्याशियों के वाहनों के खर्च का हिसाब लगाया जाए तो ये रकम करीब ढाई करोड़ बैठती है. गोरखपुर के एक प्रत्याशी भी कुछ इसी किस्म की बात करते हैं. यह वह रकम है जो पिछले एक साल में खर्च कर दी गई. अब जो कुछ खर्च होगा वह चुनाव आयोग के निर्देशानुसार नए बैंक खाते से होगा जिसकी सीमा प्रति प्रत्याशी 16 लाख रुपये है.

चुनाव के लिए बाजार में आने वाली इतनी बड़ी धनराशि से एक तरफ लाखों लोगों का रोजगार चल रहा है, तो दूसरी तरफ एक भ्रष्ट तंत्र को बढ़ावा मिल रहा है. आलोचक कहते हैं कि अकूत पैसा खर्च कर चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों से ईमानदारी की उम्मीद करना बेईमानी है.

रिपोर्टः एस वहीद, लखनऊ

संपादनः ओ सिंह