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बंगाल में खत्म हो रहा है माओवादियों का खौफ

१३ जनवरी २०१२

पश्चिम बंगाल सरकार माओवादी इलाकों में शांति और विकास के जरिए माओवादियों का खौफ कम करने की कोशिश कर रही है. इन प्रयासों का यह असर हुआ है कि इलाके में जिंदगी धीरे धीरे सामान्य होती जा रही है.

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ममता बनर्जीतस्वीर: DW

जंगलमहल के नाम से बदनाम पश्चिम बंगाल के माओवादी असर वाले इलाकों की तस्वीर धीरे-धीरे ही सही, बदल रही है. बीते साल 24 नवंबर को शीर्ष माओवादी नेता किशनजी के मारे जाने के बाद लालगढ़ और झाड़ग्राम जैसे इलाकों में लोगों के दिलों से माओवादियों का खौफ कम हो रहा है. ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनने के बाद आठ महीनों के भीतर चार बार इस इलाके का दौरा कर चुकी हैं. कभी माओवादियों का गढ़ कहे जाने वाले झाड़ग्राम इलाके में शांति और विकास की प्रक्रिया तेज करना उनकी प्राथमिकता सूची में काफी ऊपर है. उन्होंने इलाके के लिए करोड़ों की लागत वाली दर्जनों नई विकास परियोजनाओं का एलान किया है. लेकिन उन परियोजनाओँ पर भी राजनीति शुरू हो गई है. इसी सप्ताह झाड़ग्राम में तीन दिवसीय युवा जंगलमहल उत्सव का आयोजन किया गया. उसके समापन समारोह में ममता भी मौजूद थी. इलाके में माओवादियों के घटते असर को देखा जा सकता है.

घटता खौफ

अभी कुछ महीनों पहले तक झाड़ग्राम और लालगढ़ इलाके में माओवादियों की समानांतर सरकार चलती थी. कोई ढाई साल से माओवादियों के खिलाफ साझा सुरक्षा बलों के अभियान के बावजूद उनका मुकाबला करना तो दूर, लोग माओवादी गतिविधियों के बारे में मुंह खोलने तक को तैयार नहीं थे. पूरे इलाके में हमेशा अघोषित कर्फ्यू रहता था. माओवादियों की ओर से बात-बेबात होने वाले बंद ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया था. लालगढ़ के जोगेन महतो कहते हैं, 'पिछले कुछ महीनों के दौरान काफी बदलाव आया है. खासकर किशनजी की मौत के बाद इलाके में माओवादी आतंक कम हुआ है. लेकिन यह समस्या पूरी तरह खत्म नहीं हुई है.'

Militärische Operation gegen Maoisten in Indien
सुरक्षा बलों की कार्रवाईतस्वीर: picture-alliance/ dpa

जोगेन महतो बताते हैं कि अब जंगलमहल में जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है. पहले गांव वाले किसी अनजान व्यक्ति से बात करते हुए डरते थे. पता नहीं पुलिस का मुखबिर समझ कर माओवादी रात के सन्नाटे में हत्या न कर दें. शाम होते ही बाजार बंद हो जाते थे और इलाके में खामोशी छा जाती थी. लेकिन अब लोग खेत-खलिहानों में काम करने जाने लगे हैं. बाजार भी देर तक खुले रहते हैं. लोगों में कम होते खौफ का सबूत दो सप्ताह पहले की वह घटना है जब गांव वालों ने माओवादियों की मदद करने वाले पांच लोगों को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया था. पहले तो उनके नाम से ही लोगों की घिग्गी बंध जाती थी. वह लोग माओवादियों के मुखबिर के तौर पर काम करते थे और उनको खाना-पानी पहुंचाते थे. पहले इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी.

माहौल में आए बदलाव की वजह से ही अब जंगलमहल इलाके में रात को भी ट्रेनों की आवाजाही भी शुरू हो गई है. 28 मई 2010 को ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटना के बाद माओवादी खतरे को ध्यान में रखते हुए उस इलाके में रात को ट्रेनों की आवाजाही रोक दी गई थी. रेल की पटरी पर बम विस्फोट की वजह से हुए उस हादसे में 148 यात्रियों की मौत हो गई थी. लेकिन इसी सप्ताह यह रोक हटा ली गई है.

ममता की पहल का असर

ममता बनर्जी ने पिछले साल विधानसभा चुनाव जीतने के बाद तीन महीने के भीतर जंगलमहल की समस्या के समाधान का वादा किया था. उन्होंने सत्ता संभालते ही इसकी शुरूआत की थी. माओवादियों को बातचीत के लिए राजी करने की खातिर एक मध्यस्थ समिति भी गठित की गई थी. लेकिन राज्य सरकार और माओवादियों के बीच महीनों तक तू डाल-डाल, मैं पात-पात की तर्ज पर आंखमिचौली चलती रही. उल्टे उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को चुन-चुन कर मारना शुरू किया.

ममता बनर्जी दोहरी रणनीति पर काम कर रही थीं. एक ओर तो वह माओवादियों पर दबाव बना रही थीं और दूसरी ओर, राज्य की आर्थिक तंगी की चिंता किए बिना जंगलमहल के विकास के लिए करोडों की लागत वाली कई नई विकास परियोजनाओँ का एलान कर रही थीं. सरकार ने जंगलमहल के दस हजार बेरोजगार युवकों को पुलिस कांस्टेबल के पद पर भर्ती करने का भी एलान किया. यही युवक रोजी-रोटी के लालच में पहले माओवादियों के साथ हो जाते थे.

माओवादियों पर दबाव का नतीजा सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में किशनजी की मौत के तौर पर सामने आया. ममता शुरू से ही लोगों से माओवादियों का साथ नहीं देने की अपील करती रहीं. इसके लिए इलाके में लाखों पर्चे भी बंटवाए गए. धीरे-धीरे शांति बहाली की उनकी पहल ने भी रंग दिखाया और लोग माओवादियों के खिलाफ गोलबंद होने लगे. पुलिस कांस्टेबल पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन दे चुका वीरेश्वर महतो कहता है, 'इलाके के लोग लंबे समय से जारी खूनखराबे और आतंक से आजिज आ चुके हैं. इलाके का विकास ठप है. यहां शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं के बराबर हैं. इलाके के युवक बेरोजगारी झेलने को अभिशप्त हैं. लेकिन अब धीरे-धीरे बदलाव नजर आने लगा है.' वह उम्मीद जताता है कि सरकार ने इलाके में जो नई परियोजनाएं शुरू की हैं, उनका काफी असर होगा.

विकास योजनाएं

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले साल 15 अक्तूबर को जंगलमहल के दौरे के दौरान एक दर्जन से ज्यादा नई परियोजनाओँ का एलान किया था. उनमें नेताई और लालगढ़ के बीच पक्की सड़क का निर्माण, सुवर्णरेखा नदी पर पुल, झाड़ग्राम अस्पताल को जिला अस्पताल का दर्जा देना, झाड़ग्राम स्टेडियम का आधुनिकीकरण, एक पॉलिटेकनिक खोलना, 31 छात्रावासों का निर्माण, पीने के पानी की 41 परियोजनाएं, 20 हजार छात्राओं को साइकिल देना, आदिवासियों को दो रुपए किलो चावल और आटा मुहैया कराना, साढ़े छह लाख नए राशन कार्ड बनाना, 42 हजार लोगों को वृद्धावस्था पेंशन देना और बेघरों को घर और जमीन देना शामिल है. इनमें से कुछ पर काम शुरू हुआ है. लेकिन इस मुद्दे पर भी राजनीति तेज होने लगी है. विपक्षी सीपीएम के एक स्थानीय नेता निताई मंडल कहते हैं, ‘सरकारी योजनाएं हवाई ही हैं. उसके खजाने में पैसा ही नहीं है. इनको लागू करने के मुख्यमंत्री के सारे वादे हवाई ही हैं.'

लेकिन गुरुवार को चौथी बार झाड़ग्राम पहुंची ममता बनर्जी का कहना था कि इलाके में शांति बहाली से बेचैन होकर ही विपक्ष के लोग सरकार के खिलाफ कुप्रचार में जुटे हैं. वैसे, जमीनी हकीकत यह है कि कुछ परियोजनाओं पर काम शुरू हुआ है. लेकिन बड़ी परियोजनाएं फिलहाल शुरू नहीं हो सकी हैं. मसलन सड़क निर्माण के लिए अब तक टेंडर ही आमंत्रित नहीं किए गए हैं. आदिवासियों को दो रुपए किलो चावल और आटा मुहैया कराने की योजना भी अब तक कागज पर ही है. पुलिस कांस्टेबल के पदों पर बहाली की प्रक्रिया चल रही है. लेकिन बेघरों को घर या जमीन देने शुरूआत अभी तक नहीं हुई है. झाड़ग्राम के एक सरकारी अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, 'कुछ परियोजनाओँ के लिए अब तक पैसा नहीं मिल सका है. मुख्यमंत्री ने जिन परियोजनाओँ का एलान किया था, उनमें से कुछ पर काम शुरू हुआ है.' वह बताते हैं कि शायद इस साल बजट में उन परियोजनाओँ के लिए पैसों का प्रावधान कर दिया जाए. उसके बाद काम शुरू हो जाएगा.

Indien Mamata Banerjee in Jhargram
युवाओं का विरोधतस्वीर: DW

जंगलमहल उत्सव

मुख्यमंत्री की ओर से बीते अक्तूबर में घोषित ज्यादातर परियोजनाओँ पर पैसों के अभाव में काम भले नहीं शुरू हो सका हो, झाड़ग्राम में 10 से 12 जनवरी को तीन-दिवसीय जंगलमहल उत्सव के आयोजन पर सरकार ने लगभग एक करोड़ रुपए खर्च किए हैं. इसके लिए उसकी आलोचना हो रही है. जंगलमहल में पहली बार ऐसे किसी उत्सव का आयोजन किया गया था. लेकिन पश्चिम मेदिनीपुर के जिलाधिकारी सुरेंद्र गुप्ता इस भारी-भरकम खर्च का बचाव करते हुए कहते हैं, 'यह उत्सव झाड़ग्राम और पूरे पश्चिम मेदिनीपुर इलाके को शांति और विकास के केंद्र के तौर पर पेश करने का प्रयास था. झाड़ग्राम पारंपरिक तौर पर एक आकर्षक पर्यटन केंद्र रहा है. पिछले कुछ समय से यह भले युद्ध क्षेत्र बन गया था, लेकिन अब जिले में शांति है. इस उत्सव के जरिए इलाके में पर्यटकों को आकर्षित करने में काफी सहायता मिलेगी.' मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी झाड़ग्राम को उसका खोया हुआ गौरव लौटाने का वादा करते हुए पर्यटन का आधारभूत ढांचा मजबूत करने का भरोसा दिया है.

इस उत्सव पर स्थानीय आदिवासियों का एक गुट नाराज है. संथालियों के सामाजिक युवा संगठन जुआन गांवता के सचिव प्रबीर मुर्मू आरोप लगाते हैं, 'इस उत्सव का स्थानीय मिट्टी और संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं था. तमाम कलाकारों को बाहर से बुलाया गया था. स्थानीय आदिवासी कलाकारों की इसमें खास भागीदारी नहीं थी.' झुमूर नर्तकी इंद्रानी महतो कहती हैं, 'इस उत्सव में स्थानीय बुजुर्ग कलाकारों को न्योता तक नहीं दिया गया. स्थानीय लोगों की भागीदारी के बिना इस उत्सव से सरकार कौन सा मकसद हासिल करना चाहती है?' उनके मुताबिक, सरकार और जिला प्रशासन के रवैए से स्थानीय कलाकारों में भारी नाराजगी है. लेकिन उत्सव में आए पश्चिमी क्षेत्र विकास मंत्री सुकुमार हांसदा और युवा कल्याण मंत्री उज्ज्वल विश्वास कहते हैं कि किसी भी स्थानीय कलाकार ने उनसे कोई शिकायत नहीं की है.

पर्यवेक्षकों की राय

आरोपों प्रत्यारोपों और राजनीति के बीच राजनीतिक पर्यवेक्षक भी मानते हैं कि पिछले छह महीनों से जंगलमहल के हालात सामान्य हो रहे हैं. राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर वीरेश्वर हांसदा कहते हैं, 'शांति और विकास की दिशा में सरकारी प्रयास धीरे-धीरे रंग ला रहे हैं. लोगों के मन से खौफ खत्म हो रहा है. ऐसा नहीं होता तो माओवादियों की धमकियों के बावजूद हजारों युवक पुलिस में भर्ती होने के लिए आवेदन नहीं करते.' वह कहते हैं कि वर्षों से अलग-थलग पड़े स्थानीय लोगों को लग रहा है कि सरकार उनके लिए कुछ करना चाहती है. पर्यवेक्षकों का कहना है कि माओवाद के चक्रव्यूह को पूरी तरह छिन्न-भिन्न करने में अभी समय लगेगा. लेकिन शुरूआत तो हो ही गई है.

रिपोर्ट: प्रभाकर, झाड़ग्राम (पश्चिम बंगाल)

संपादन: महेश झा

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