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'फेसबुक पत्रकारिता' से चिंता

१ अक्टूबर २०१२

जर्मनी की प्रेस काउंसिल का कहना है कि देश में ऐसे मामले बढ़ रहे हैं जहां पत्रकार बिना अनुमति के सोशल मीडिया से लोगों की जानकारी लेते हैं और उसे छाप भी देते हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

जर्मन प्रेस काउंसिल की उर्जूला एर्न्स्ट का कहना है कि लोग सोशल नेटवर्क का ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं, इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि ये पत्रकारों के लिए सूचना का एक बड़ा स्रोत बन गए हैं.

पत्रकार अधिकतर सोशल नेट्वर्किंग वेबसाइटों से लोगों की तसवीरें निकाल कर अनाधिकृत तौर पर उनका इस्तेमाल कर लेते हैं. ऐसा अधिकतर उन मामलों में देखा जाता है जब किसी हादसे में किसी की मौत हो गयी हो और जल्द से जल्द उसकी तस्वीर प्राप्त करने का सबसे आसान तरीका सोशल नेट्वर्किंग वेबसाइट के जरिए है.

एर्न्स्ट की पत्रकारों से अपील है कि वे जर्मन प्रेस के सेक्शन 8 के तहत लोगों की निजता का सम्मान करें और ऐसा करने से बचें.

पत्रकारिता की आचारनीति

पिछले कुछ सालों में इस तरह के मामले तेजी से बढे हैं. 2010 में जब जर्मनी के डुइसबुर्ग में लव परेड में भगदड़ मची तब 21 लोगों की मौत हुई. उस समय लोगों ने पहली बार इस बात की शिकायत की कि पत्रकारों ने बिना उनसे पूछे उनकी या उनके रिश्तेदारों की जानकारी का इस्तेमाल किया है. इसी तरह बर्लिन में एक सड़क दुर्घटना के बाद एक अखबार ने व्यक्ति का नाम भी छापा और फेसबुक से उसकी तस्वीर निकाल कर भी छाप दी.

इस तरह की वेबसाइटों से लोगों की जानकारी निकालना पत्रकारिता की आचारनीति के खिलाफ है. एक जर्मन न्यूज एजेंसी में काम करने वाले व्यक्ति ने अपना नाम ना बताने की शर्त पर डॉयचे वेले को बताया कि 2009 में जब जर्मनी के एक स्कूल में गोलीबारी की खबर आई तो न्यूजरूम ने फेसबुक पर जानकारी ढूंढी, "हमने टिम क्रेचमर का फेसबुक पेज ढूंढा. हालांकि हमें जल्द ही समझ आ गया कि वह एक फर्जी पेज था.

गिरता स्तर

इसके विपरीत ज्यूड डॉयचे वेबसाइट के संपादक थॉर्स्टन डेंक्लर इस बात से इनकार करते हैं कि यह एक बड़ी समस्या है. उनके अनुसार बहुत कम पत्रकार इस तरह की छानबीन करते हैं, "अधिकतर संपादकीय टीम उस व्यक्ति या उसके परिवार वालों से बात करती है. उनसे अनुमति के बाद ही कोई तस्वीर इस्तेमाल की जाती है. कॉपीराइट के कारण वैसे भी हमें यह करना ही होता है."

आंकड़ों की मानें तो डेंक्लर की बात में दम नहीं लगता. जर्मन प्रेस काउंसिल के अनुसार इस साल के अंत तक करीब 1420 शिकायतें दर्ज हो चुकी होंगी. यह पिछले सालों की तुलना में काफी बड़ी संख्या है. हालांकि एर्न्स्ट से जब पूछा गया कि बढ़ती संख्या क्या जर्मनी में पत्रकारिता के स्तर में गिरावट को दर्शाती है तो उन्होंने इस पर टिपण्णी करने से मना कर दिया.

भारत के बुरे हालात

जर्मनी के लिए यह भले ही बहुत बड़ी संख्या हो. लेकिन भारत से इसकी तुलना ही नहीं की जा सकती. यह अलग बात है कि वहां लोग शिकायत दर्ज नहीं कराते क्योंकि कम ही लोग हैं जो अपने हक के बारे में जानकारी रखते हैं. सोशल मीडिया वेबसाइटों से लोगों की जानकारी निकालना, किसी वारदात में मारे गए लोगों की पूरी जानकारी देना भारतीय मीडिया में आम बात है. हालांकि पिछले कुछ समय में हालत कुछ सुधरे हैं. कुछ टीवी चैनल बच्चों और लड़कियों की तस्वीरों को धुंधला कर देते हैं ताकि उनकी पहचान ना हो सके. आरुषि मामले में हत्या के फौरन बाद उसका नाम और तस्वीर मीडिया में थी. गुवाहाटी में स्कूली बच्ची के साथ सड़क पर हुई बदसलूकी के मामले में भी देखा गया कि पत्रकार कैमरे पर उसका नाम, स्कूल का नाम और क्लास जैसी जानकारी मांग रहा है और फिर उसे यू ट्यूब पर डाल दिया गया. एक बच्ची जो पहले से ही अपमान का शिकार हो उसकी निजी जानकारी सार्वजनिक करना कहां तक सही है.

रिपोर्ट: आंद्रे लेस्ली / ईशा भाटिया

संपादन: आभा मोंढे