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नाजी यूरोप की खौफनाक धरोहर

७ मार्च २०१३

एक नए शोध से पता चला है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यूरोप में 42,000 से ज्यादा नाजी कैंप थे. अब तक इनकी संख्या 7,000 तक आंकी जा रही थी. आम लोगों को इन कैंपों की जानकारी कैसे नहीं थी, यह समझना अब और मुश्किल हो रहा है.

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यातना शिविर आउश्वित्स जा रहे बंदीतस्वीर: picture-alliance/dpa

"मुझे सुनकर अजीब लगता है कि दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के 70 साल बाद और नाजी यातना शिविर मिल रहे हैं और यहूदी जनसंहार के बारे में नई निजी कहानियां उभर रही हैं." डॉयचे वेले से बातचीत के दौरान अमेरिकी इतिहासकार मार्टिन डीन अपना आश्चर्य छिपा नहीं पाते. 13 साल से वे उन सारे तथ्यों को इकट्ठा कर रहे हैं जिन्हें अमेरिका, यूरोप और इस्राएल में अलग अलग शोधकर्ताओं ने अपने स्तर पर जमा किया. यह शोधकर्ता स्थानीय स्तर पर तो मशहूर थे, लेकिन यहूदी जनसंहार की साझा छवि में इनका नाम नहीं था. डीन को जनसंहार की पूरी तस्वीर में दिलचस्पी थी और उनकी टीम ने कुछ खास खोज भी निकाला. होलोकॉस्ट म्यूजियम में उनकी टीम को पता चला है कि यूरोप में अनुमान से कहीं ज्यादा यातना शिविर थे. शोधकर्ताओं का मानना था कि यूरोप में 7,000 ऐसे यातना शिविर थे लेकिन अब पता चला है कि इनकी संख्या 42,500 थी.

बंधुआ मजदूरों के लिए कैंप

डीन के शोध ने हलचल मचा दी है. सबसे पहले न्यू यॉर्क टाइम्स ने डीन की खोज के बारे में बताया और फिर अखबारों में खबरें आनी लगीं. अब साफ हो गया है कि पूरे यूरोप में हजारों लोगों को नाजियों ने जबरदस्ती यातना शिविरों में भेजा. इन शिविरों में हालत बहुत खराब थी. बंदियों का उत्पीड़न किया गया और लोग भुखमरी का शिकार बने. 30,000 कैंप केवल बंधुआ मजदूरों के लिए थे. इनके अलावा 1,150 शिविर यहूदियों के लिए थे, 980 यातना शिविर थे, 1,000 शिविर युद्ध कैदियों के लिए और 500 कैंप ऐसी महिलाओं के लिए थे जिन्हें देह व्यापार करने पर मजबूर किया गया. इसके अलावा ऐसे भी कई कैंप थे जिनका मकसद था लोगों को शिक्षित कर "जर्मन बनाना", महिलाओं से जोर जबरदस्ती गर्भपात कराना, दिमाग से अस्थिर लोगों को मार डालना और लोगों को हत्या कैंपों में भेजने के लिए जमा करना.

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बंधुआ मजदूरतस्वीर: picture-alliance/dpa

डीन और उनकी टीम ने खास तौर से युद्धबंदियों और बंधुआ मजदूरों के कैंपों पर ध्यान दिया. यह काम काफी मेहनत वाला था क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के 70 साल बाद भी जानकारी साफ नहीं है. कई कैंपों में कुछ महीनों के लिए एक काम होता और फिर उसमें कुछ और किया जाने लगता. नाजी पुलिस गेस्टापो ने मिसाल के तौर पर लेबर कैंप शुरू किए, जिनमें मजदूरों को अनुशासित करने की बात कही गई. लेकिन ज्यादातर कैंपों में पोलैंड से आ रहे आम लोगों को यातना दी जाती. कई बार इटली से लाए गए यहूदियों को इनमें रखा जाता और इसके बाद उन्हें यातना शिविरों में भेज दिया जाता. डीन कहते हैं, "शोधकर्ता की हैसियत से अगर आप कहें कि इन कैंपों का केवल एक काम था तो यह गलत होगा." हर शिविर की अपनी कहानी है और इनके बारे में एक आम राय बनाना गलत होगा. 40,000 से ज्यादा नाजी शिविरों पर शोध करना विशेषज्ञों के लिए मुश्किल हो सकता है.

क्या कर रहे थे जर्मन?

केवल शोधकर्ता ही नहीं, बहुत से जर्मन नागरिक भी अपने अतीत को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं. क्या ऐसा संभव है कि उनके नाना-नानी या दादा-दादी को यूरोप में 42,000 नाजी शिविरों की कोई जानकारी नहीं थी, क्या 30,000 लेबर कैंपों को अनदेखा किया जा सकता है? डीन को यह असंभव लगता है.

जर्मन विशेषज्ञों को डीन के शोध से कोई आश्चर्य नहीं हो रहा. फ्रैंकफर्ट में फ्रित्स बाउअर इंस्टीट्यूट के क्रिस्टोफ डीकमन ने इस शोध के दौरान डीन की मदद की. कुछ समय पहले उन्हें जनसंहार पर अपने काम के लिए याद वाशेम इंटरनेशनल बुक प्राइज भी दिया गया. डीकमन कहते हैं, "अमेरिका में शोध से पता चलता है कि कैंपों वाला यह समाज युद्ध के दौरान आम बात थी. जब हम अपने दादा दादी से पूछते हैं तो वे सारे बंधुआ मजदूरों को जानते थे." 1943-1944 में जर्मन साम्राज्य के बीस से लेकर तीस प्रतिशत मजदूर बंधुआ मजदूर थे और कैंपों में रहते थे.

Auschwitz Tor
आउश्वित्स का दरवाजातस्वीर: picture alliance/dpa

लेकिन सार्वजनिक तौर पर इस बारे में बहुत कम बात होती है. डीकमान इस बात से हैरान नहीं हैं. अमेरिकी शोधकर्ताओं के मुताबिक नाजियों के समय नाजी सेना यानी वेयरमाख्ट द्वारा चलाए जा रहे 500 से ज्यादा वैश्या घर थे और इनमें महिलाओं को देह व्यापार के लिए मजबूर किया जाता था. डीकमान कहते हैं, "वेयरमाख्ट, यह हमारा दादा नाना भी थे. और क्या उन्होंने हमें इन वैश्यालयों के बारे में बताया? नहीं!"

डीकमान ने नाजी समय में लिथुएनिया पर शोध किया है. उन्हें पता चला कि लिथुएनिया में भी यहूदियों के 100 से ज्यादा कैंप थे. जर्मन सैनिकों ने उस वक्त एक लाख लोगों को इनमें बंद कर रखा था, बिना सोचे समझे कि उनकी देखभाल कैसे होगी और उनकी निगरानी कैसे होगी. जर्मनी और लिथुएनिया का प्रशासन काफी दबाव में था. इसका नतीजा यह हुआ कि कब्जा करने वालों ने तय किया कि जर्मन साम्राज्य का दुश्मन होने के नाते यहूदियों ने अपना जीने का अधिकार खो दिया है. अक्तूबर 1941 तक लिथुएनिया में रह रहे यहूदियों को मार दिया गया. और यह तब की बात है जब यूरोप में सारे यहूदियों को यातना शिविर ले जाने का काम शुरू भी नहीं हुआ था.

रिपोर्टः क्लारा वाल्थर/एमजी

संपादनः महेश झा

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