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कैसे टूटे कला जगत का सन्नाटा

१ अप्रैल २०१३

भारतीय चित्रकारों की पेंटिंगें जब लाखों डॉलर में बिकने लगीं, तो लगा मानो भारतीय चित्रकारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रही है. लेकिन खुद भारत में तस्वीर कुछ अलग है. क्यों.

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तस्वीर: Art Gallery of Windsor, Ontario

कुछ ही दिन हुए जब कला की अंतरराष्ट्रीय दुनिया में बड़ा धमाका हुआ. मशहूर भारतीय चित्रकार वीएस गायतोंडे की एक पेंटिंग नीलामी कंपनी सॉथबीज की एक बोली में नौ लाख 65 हजार अमेरिकी डॉलर में बिकी. फ्रांसिस न्यूटन सूजा रजा और मंजीत बावा की पेंटिंगें भी इसी नीलामी में लाखों डॉलरों में बिक गईं.

इस नीलामी और हिमालयी बोलियों से लगने लगा कि हिंदुस्तानी कला का सन्नाटा टूट रहा है और कला बाजार में रौनक लौट आई है. लेकिन ये स्थिति भारत में तो नहीं दिख रही जहां सन्नाटा ही फैला नजर आता है. और कला दीर्घाओं में भीड़ नहीं जुट रही हैं, दर्शक जरूर आ जाते हैं लेकिन खरीदार दूर है.

ऐसे में सवाल कि अब कला की दुनिया में नई पीढ़ी के पेंटरों की निराशा और रचना स्फूर्ति के ग्राफ से भी जुड़ने लगा है. क्या बाजार को रिझाने के लिए कला तरतीबें बदलनी होंगी, क्या ये बाजार के दबाव और मांग के आगे झुकना होगा, क्या कला में सृजनात्मक स्ट्रोक्स और लाइनें और रंग और टेक्सचर बाजार के हवाले हो जाएंगे. ये सवाल अब कुछ ज्यादा ही मुखर हो उठे हैं. क्या कला आंदोलन का कोई नया दौर अब संभव नहीं. बंगाल से लेकर बंबई और बड़ोदा स्कूल के आगे कोई नई धारा आएगी तो उसकी नियति सूख जाने की होगी.

इसी बीच ये भी माना जा रहा है कि 2013 में कला बाजार में कुछ गति आएगी और ये सुधरेगा. दिसंबर में हुआ कोच्चि कला उत्सव इस दिशा में अहम कदम माना जा रहा है कि इसने भारतीय कला बाजार में कुछ नई ऊर्जा फूंकी है. फिर भी अगर कला के हाल को देखें तो अभी भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के युवा चित्रकारों का काम बड़े पैमाने पर खरीदा नहीं जा रहा है. अभी भी नामचीन कलाकार ही बोली में अव्वल रहते हैं. आधुनिक भारतीय कला के शिखर पुरुषों में एक एफएन सूजा, सैयद हैदर रजा, एमएफ हुसैन, वीएस गायतोंडे जैसे नामों का बोलबाला ही रहा. इन्हीं में एक नाम हाल में सुर्खियों में रहा वो तैयब मेहता का है. उनकी पेंटिंग भी लाखों करोड़ों में बिक रही हैं. नए कलाकारों में बिहार के सुबोध गुप्ता का नाम टॉप टेन भारतीय कलाकारों में शुमार है. अपनी विशिष्ट कलाओं और स्टील के बर्तनों की छवियों से नया काम रचने वाले गुप्ता को भी मुंहमांगा दाम मिल रहा है. लेकिन बोलियां और बिक्री इन गिने चुने नामों तक ही सीमित है.

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तस्वीर: Delhi Art Gallery

असल में कला बाजार का गणित भी कमोबेश भूमंडलीय मुख्य बाजार की शर्तों से संचालित होता आ रहा है और प्रकट या घोषित तौर पर तो नहीं, इसके उतार चढ़ाव भी शेयर मार्केट की तरह तौले जा रहे हैं. कला के भीतर बाजार और बाजार के भीतर मुनाफा और मुनाफे के भीतर कला- इसे आप तहें कह लीजिए या चक्र या दुष्चक्र. कला जगत की अनिश्चिताओं में ये बात भी शामिल है कि आखिर पेंटर अब नया क्या करें. नएपन की निरतंरता की अवधारणा अब एक कला धर्म ही नहीं एक बाजार शर्त भी बनती जा रही है.

सृजनात्मक इम्तिहान तो जो है सो है वो अब बाजार में बने रहने या बाजार में बिकने लायक हो पाने का कड़ा इम्तिहान भी है. कला जगत में इधर जो प्रयोग दिख रहे हैं, इसलिए उनमें रचनात्मक संवेग से ज्यादा एक दबाव ज्यादा दिखता है. नहीं बिकेंगे तो क्या होगा. एक लिहाज से ये चिंता स्वाभाविक भी है. आखिर पांच साल के भीतर इसी कला बाजार में ये गिरावट आई है जो कहता था कि पेंटिंग खरीदना जमीन खरीदने या सोना खरीदने से बेहतर निवेश है. अब लेकिन जिनके पास पेंटिगों का संग्रह है भी तो वे एक गहरी दुश्चिंता में हैं. वे अगर उसे बाजार में ले जाएं तो उतने खरीदार या उतना मूल्य मिल पाएगा जिसे वे मुनाफे का संतोष कह सकें.

इस तरह निजी कला संग्रहकर्ता हों या छोटी गैलरियां या आर्ट फंड, इनके प्रयासों और बाजार में दखल की हिम्मत करने के इरादों को फीका करती रहती है बड़ी अंतरराष्ट्रीय नीलामी कंपनियां जैसे क्रिस्टीज या सॉथबीज. तैयब मेहता हों या रजा या हुसैन या गायतोंडे या रामकुमार इन कंपनियों के हवाले से होने वाली बोलियों को बड़े दाम मिल जाते हैं. अगर यही दाम भारत की कोई कला दीर्घा निकाले या कोई प्राइवेट कलेक्टर तो उसके लिए ये अभी ख्वाब ही होगा.

कला बाजार में नाउम्मीदी के समांतर उसमें जान फूंकने की कोशिश करने वाली शक्तियां इस बाजार की रौनक में दिन रात बढ़ोतरी का दावा करती रहती हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 2009 से ये कला बाजार लगातार बढ़ रहा है. यानी 20 करोड़ डॉलर से कुछ कम से होता हुआ 2010 में 25 करोड़, 2011 में 27 करोड़ और 2012 में 30 करोड़ से कुछ कम का रहा. 2015 तक इसके 70-75 करोड़ तक पहुंच जाने का दावा है. ये आंकड़ा पूरी दुनिया में भारतीय कला की खरीदारी और बिक्री का है. और सारे माध्यमों और स्रोतों से, यानी नीलामी से, गैलरियों के जरिए, निजी डीलरों, सलाहकारों, प्रमोटरों, स्टूडियो आदि के जरिए. लेकिन मुश्किल ये है कि ऐसे और भी आंकड़ें जो कम या ज्यादा फीकी या चमकदार तस्वीरें पेश करते रहे हैं. यानी कोई प्रामाणिक आंकड़ा इस कला बाजार का नहीं है कि आज इसकी स्थिति क्या है. आप हालात देखकर या अपने कुछ मुआयने और ऑब्जर्वेशन की मदद से एक झलक बता सकते हैं कि पेंटिंग हैं और उनके खरीदार भी लेकिन कोई जोखिम नहीं उठा रहा है और नया काम मंथर गति से चल रहा है.

असल में लगता है एक बड़े धक्के की जरूरत भारतीय कला को है, शताब्दी का कोई ऐसा बड़ा धक्का जैसा अंतरराष्ट्रीय कला की दुनिया में 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में पिकासो आदि के हवाले से यूरोप में आया था. भारत जैसे देशों में कला जगत का सन्नाटा कला आंदोलनों से ही टूटेगा, कला बाजार की उठती गिरती घूमती टूटती बनती बिगड़ती ग्राफिक लाइनों से नहीं. वो तो हर चीज को शेयर बनाने को तत्पर है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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