कोई कहे आजादी तो कोई हमला
९ अप्रैल २०१३फिरदौस चौराहे पर वह मंच खाली है जहां से 9 अप्रैल 2003 को सद्दाम हुसैन की विशालकाय मूर्ति गिरा दी गई थी और उसके साथ उसके शासन का सांकेतिक अंत हुआ था. कुछ समय के लिए वहां एक नामी इराकी मूर्तिकार की कलाकृति रखी गई थी, लेकिन उसकी बहुत आलोचना हुई. फिर जब आतंकवाद आया और इस जगह भी बमों के धमाके होने लगे तो नई मूर्ति गायब हो गई. और जब तक इराकी इस बात पर एकमत नहीं हो जाते कि अमेरिकी सैनिकों का आना और तानाशाह का पतन हमला था, मुक्ति थी या कब्जा, यह जगह खाली ही रहेगी.
स्थायी राजनीतिक संकट
अमल इब्राहीम कहती हैं, "मेरे लिए यह अच्छे इरादों वाला अतिक्रमण था, लेकिन यह निश्चित तौर पर हमला था." इसके बावजूद शिया समुदाय को बदलावों से भारी फायदा पहुंचा है, जिसमें 43 साल की इब्राहीम भी हैं. सद्दाम हुसैन का विरोध करने के कारण इब्राहीम के डॉक्टर पिता को मार दिया गया था. इब्राहीम के लिए सद्दाम समर्थक शासन में करियर की कोई संभावना नहीं थी. अब वह मंत्रिपरिषद में जिम्मेदार ओहदे पर हैं. इसके बावजूद वे इराक के खिलाफ सैनिक कार्रवाई को मुक्ति नहीं मानती. उनका कहना है कि अतिक्रमण को उसके नतीजों में देखा जाना चाहिए, "मुक्ति अलग दिखती है."
मौजूदा समस्याओं की जड़ वे अध्यादेशों और कानूनों में देखती हैं जिसे अमेरिकी प्रशासक पॉल ब्रेमर ने कब्जे के दौरान लागू किया. पहले सरकारी परिषद के चुनाव ने ही लोगों को राजनीतिक वर्ग से दूर कर दिया. नेताओं को मोटी मोटी तनख्वाहें और दूसरी सुविधाएं दी गईं. इसके अलावा उन्होंने अपना लक्ष्य बदल लिया. वे देश के हितों को नहीं बल्कि अपने हितों को बढ़ावा देने लगे. "मुझे मालूम नहीं कि यह जानबूझ कर हुआ या होता गया." लेकिन 2011 में अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद इराक स्थायी राजनीतिक संकट का शिकार है.
मुश्किल अतीत
इराक ने मुश्किल के दिन काटे हैं. तीन दशक की तानाशाही, तीन युद्ध, अनेक क्रांतियां, दस साल तक चलने वाले आर्थिक प्रतिबंध जिसने देश का गला घोंट डाला. 2003 में अमेरिकी हमले के साथ सद्दाम हुसैन को तख्त से हटा दिया गया और तानाशाही खत्म हुई लेकिन उसके बाद शुरू हुई अराजकता, लूटपाट और सत्ता के लिए नया संघर्ष. आतंकी संगठन अल कायदा ने जड़ें जमा लीं और 2006 से धार्मिक और राजनीतिक कट्टरपंथियों ने देश को हिंसा की आग में झोंक दिया जो 2009 तक चला.
शिया और सुन्नियों ने एक दूसरे की मार काट शुरू कर दी. ईसाइयों को मारा गया, गिरजों को जला दिया गया. अपहरण, डकैती और हत्या ने देश को वहां के लोगों के लिए और विदेशी सैनिकों के लिए नर्क बना दिया. हिंसा के चरम पर संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार हर महीने 3000 इराकी मारे जाते थे. हत्याओं, पलायन और विस्थापन के जरिए शिया और सुन्नी एक दूसरे से बंट गए. राजधानी बगदाद में बहुत से लोग घरबार छोड़कर उन इलाकों में चले गए जहां उनके संप्रदाय के लोग रहते थे. बहुत से पुराने मिश्रित मुहल्ले जातीय और धार्मिक मुहल्ले बन गए. फिर लड़ाइयां कम हुईं, आतंकी हमले घटे.
नर्वस सरकार
जब अमल इब्राहीम दफ्तर का काम खत्म होने के बाद अति सुरक्षित ग्रीन जोन से बाहर निकलती हैं, तो चार बच्चों की मां को पता नहीं होता कि उन्हें घर पहुंचने में कितना वक्त लगेगा. उन्हें फलीस्तीन स्ट्रीट पर जाने के लिए दजला नदी पर पुल पार करना होता है. कभी यह मिनटों में हो जाता है तो कभी घंटे से ज्यादा लग जाता है. हालांकि पिछले सालों में रास्ते पर बनी सुरक्षा चौकियां हटा दी गई हैं लेकिन खराब होती सुरक्षा के कारण पुलिस मोबाइल चेकप्वाइंट बनाने लगी है. अब वह बिना बताए और मनमाने तरीके से गाड़ियों को रोकती है, उसमें सवार लोगों की पहचान की जांच करती है.
यह सब दिखाता है कि सरकार कितनी नर्वस है. प्रधानमंत्री लूरी अल मलिकी पर, जो रक्षा और पुलिस मंत्रालय भी देखते हैं, सभी ओर से दबाव है. कोई उनके साथ सरकार नहीं चलाना चाहता. हर दिन इस्तीफों की खबर आती है. उनकी सरकार भंग होने की राह पर है. दूसरी ओर अल कायदा फिर से सर उठा रहा है. आतंकी संगठनों के समन्वित हमलों के कारण प्रेक्षक फिर से गृह युद्ध के खतरे की बात करने लगे हैं. बगदाद और इराक के 13 दूसरे प्रांतों में 20 अप्रैल को चुनाव हो रहे हैं. इसके अलावा बगदाद इस साल इस्लामी दुनिया का सांस्कृतिक केंद्र है. आतंकवादियों के लिए अपनी ध्यान खींचने का बेहतरीन मौका.
नई आजादी की खुशियां
कम से कम बगदाद में लोग इससे परेशान नहीं दिखते. उदासीन शांति के साथ वे घंटों जाम में खड़े रहते हैं या पैदल चलकर दजला नदी पर बने पुल को पार करते हैं. जबकि आतंकी हमलों के शुरुआत दिनों में शाम होते ही रास्ते सूने हो जाते थे क्योंकि लोग डरकर घरों में बैठे रहते थे, अब करादा के बाजार में आधी रात तक हलचल रहती है. इसी इलाके में फिरदौस चौराहा भी है. नदी के तट पर बने पार्क अबु नवास में लोग परिवारों के साथ देर रात तक चक्कर लगाते रहते हैं.
राजधानी में होने वाले थियेटर और कंसर्ट लोगों से भरे होते हैं और रेस्तरां भी इन दिनों लोगों के न होने की शिकायत नहीं कर सकते. इब्राहीम कहती हैं, "हां, आतंक की भी आदत लग सकती है, या कम से कम उससे पेश आना सीखा जा सकता है." अपने 22 साल के बेटे की वजह से वह जानती हैं कि उस उम्र के नौजवान दस साल से मिली आजादी को सुरक्षा के नुकसान से ज्यादा अहम मानते हैं. इंटरनेट उनके लिए दुनिया का दरवाजा बन गया है. सद्दाम के शासन में डिश एंटीना पर भी रोक थी. मंत्रिपरिषद के एक सर्वे के अनुसार 25 साल से कम उम्र के युवा इराकी दस साल पहले हुए अमेरिकी और ब्रिटिश हमले को अपनी मुक्ति मानते हैं.
रिपोर्ट: बिर्गिट स्वेनसोन/एमजे
संपादन: ए जमाल