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यूनेस्को में यूरोप की भूमिका

३० मई २०१३

यूरोप में यूनेस्को सांस्कृतिक धरोहरों की संख्या बाकी दुनिया के धरोहरों से ज्यादा है. इसे देखकर लगता है कि छोटा सा महादेश सांस्कृतिक धरोहरों का बहुत ख्याल रखता है, लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं.

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तस्वीर: Rathaus Goslar

कोलोन का विशालकाय चर्च यानी कैथीड्रल, इटली का शहर वेनिस या स्पेन में सनतियागो डे कॉम्पोस्टेला, यह सब विश्व सांस्कृतिक धरोहरों की यूनेस्को की सूची पर हैं. यूरोप में इस तरह के 378 धरोहर हैं, जबकि बाकी दुनिया में सिर्फ 367. ऐतिहासिक विरासतों को बचाने की कोशिश यूरोप में काफी दिनों से होती रही है, इसलिए यहां इतने ज्यादा धरोहर भी हैं. लेकिन यूनेस्को में काफी समय से इस असंतुलन को बदलने की कोशिश की जा रही है, फिर भी यूरोप अभी आगे है. लेकिन इसका मतलब क्या यह हैकि यूनेस्को में यूरोप का वर्चस्व है, या यूरोपीय देश संयुक्त राष्ट्र संस्था में अत्यंत सक्रिय हैं?

सचमुच यूनेस्को में काफी समय तक यूरोपीय देशों का बोलबाला था. 1943 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही लंदन में एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षा और सांस्कृतिक संगठन बनाने के लिए आठ यूरोपीय मित्र देशों की बैठक हुई. उनके नजरिए की छाप 1945 में यूनेस्को के गठन में दिखी. एजेंडे की प्राथमिकता थी, संवाद के जरिए विश्व में शांति की स्थापना.

मानवाधिकार और लोकतंत्र

आश्चर्यजनक रूप से बहुत जल्द 1951 में ही संघीय गणराज्य जर्मनी को यूनेस्को में शामिल कर लिया गया. वह पहला अंतरराष्ट्रीय संगठन था जिसने नाजी काल के अपराधों के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उसकी वापसी को संभव बनाया. उसने हिटलर के शासन काल में पैदा हुए सांस्कृतिक और राजनीतिक अलगाव को समाप्त किया. यह जर्मनी के लिए यूनेस्को में विशेष रूप से सक्रिय होने की महत्वपूर्ण वजह थी. युद्ध, जनसंहार और तानाशाही के भयानक अनुभवों के बाद यूनेस्को के मूल्य मानवता, मानवाधिकार और लोकतंत्र केंद्र में थे. वे मूल्य जो कभी यूरोप में हासिल किए गए थे और जिनकी अहमियत 20वीं सदी में समाप्त नहीं हुई थी.

Kölner Dom
तस्वीर: Foustontene - Fotolia.com

लेकिन अब हालात अलग हैं. जर्मनी के यूनेस्को कमीशन ने यूनेस्को में यूरोपीय देशों की गतिविधियों का दयनीय मूल्यांकन किया है. यूनेस्को में रणनैतिक योजना के प्रभारी हंस डेऑर्विल का कहना है कि संगठन में जर्मनी और यूरोप की पहले की अगुवा भूमिका नहीं रही है, "हम दूसरों के साथ सहयोग कर और ज्यादा उपस्थिति दिखा सकते थे." और इसमें खास कर बहस, सोच विचार और आलोचना सुनने की शक्ति जैसे वे मूल्य दिखाना है, जिन पर यूरोप आधारित है.

अक्सर ये मूल्य आर्थिक प्रगति की भेंट चढ़ रहे हैं. आधुनिक समाजों का विकास पर्यावरण और सामाजिक विकृतियों पर टिका है, जिसे जानने के बावजूद स्वीकार किया जा रहा है. टिकाऊ विकास के लिए काम करने वाले वुपरथाल इंस्टीट्यूट के प्रमुख ऊवे श्नाइडेविंड इस बात की आलोचना करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका मुकाबले करने का कोई कारण नहीं है, "यहां शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति की जरूरत है क्योंकि वे सोच विचार के स्तर हैं जहां विकल्पों पर विचार और फैसला किया जा सकता है."

आधुनिकता और मानवीयता

इस समय मानवता के लिए, जिस तरह से यूनेस्को ने इसके बारे में कभी सोचा था, हालात अच्छे नहीं हैं. यही बात विज्ञान नीति पर भी लागू होती है, जो यूनेस्को का एक केंद्रीय लेकिन जनमत में अज्ञात कार्यक्षेत्र है. श्नाइडेविंड तकनीकी शोध पर एकतरफा निर्भरता के बदले सामाजिक और सांस्कृतिक विज्ञान को मजबूत बनाने की मांग करते हैं. एक मिसाल विकासशील देशों में माइक्रो क्रेडिट है, जो लोगों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित करने की स्थिति में लाते हैं. "ऐसी जानकारियां हाई टेक प्रयोगशालाओं में विकसित नहीं होती बल्कि स्थानीय स्तर पर वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की जाती हैं, जिन्हें सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है."

श्नाइडेविंड की बातों का यूगांडा के यूनेस्को कमीशन के महासचिव आउगुस्टीन ओमारे ओकुरूत समर्थन करते हैं. उनका कहना है कि उनके देश में शिक्षा का व्यावसायीकरण हो गया है और वह अर्थव्यवस्था के उदारीकरण से प्रेरित है. "हर कहीं यूनिवर्सिटी खुल रहे हैं, कोर्स की संख्या दोगुनी हो गई है, लेकिन क्वालिटी नहीं सुधरी है." नतीजा यह निकल रहा है कि लोग यूनिवर्सिटी पास कर रहे हैं, लेकिन आलोचनात्मक सोच नहीं सीख रहे हैं. ओमारे ओकुरूत कहते हैं, "यहां यूनेस्को को सक्रिय होना चाहिए. हमें दर्शन के कोर्स की जरूरत है, जिसमें इस पर विचार हो कि सामाजिक बदलाव का सामना कैसे किया जाए."

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यूनेस्को की बैठक में यूरोप की आलोचनातस्वीर: picture-alliance/dpa

ब्राजील की यूनेस्को दूत मारिया लॉरा दा रोखा भी यूनेस्को में अधिक यूरोपीय उपस्थिति चाहती हैं, "यूरोप हमेशा अपने संकट की बात करता है, उसमें बहुत ज्यादा निराशा है. हम ऐसा नहीं देखते. अभी मिलजुल कर समाधान खोजने की घड़ी है." जर्मन यूनेस्को आयोग के प्रमुख वाल्टर हिर्षे भी यूरोप की जिम्मेदारी की बात करते हैं, "इससे बचना चाहिए कि अंदर में झांकना प्रमुख हो जाए. हमें मिलकर बाहर की ओर देखना चाहिए और संवाद तथा खुलेपन पर जोर देना चाहिए."

ओमारे ओरुकुत कहते हैं, "अफ्रीका में हमारा अनुभव दिखाता है कि लोकतंत्र के मामले में यूरोप को अगुवा होना चाहिए. लेकिन हम देखते हैं कि यूरोप आर्थिक और राजनीतिक कारणों से अफ्रीका के अलोकतांत्रिक सरकारों पर ध्यान नहीं देता. यही हाल मानवाधिकारों का भी है." ओमारू ओरुकुत की मांग है कि यूरोप को दृढ़ता दिखानी चाहिए. यदि लोकतंत्र यूरोप के लिए अच्छा है तो उसे अफ्रीका के लिए भी अच्छा होना चाहिए.

रिपोर्ट: आया बाख/एमजे

संपादन: ए जमाल

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