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बीजेपी में अटल अडवाणी युग खत्म

१३ जून २०१३

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कट्टरपंथी समझे जाने वाले आडवाणी नरेंद्र मोदी के सामने दूसरे दलों को धर्मनिरपेक्ष लग रहे हैं लेकिन फिर भी बीजेपी के लिए अब वो अपरिहार्य नहीं रहे.

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तस्वीर: AP

पिछले रविवार गोवा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया और अगले ही दिन सोमवार को पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी संगठन के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. लेकिन उन्होंने भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिया. वह चाहते थे कि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव अभियान समिति के साथ-साथ पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के नेतृत्व में चुनाव प्रबंधन समिति भी गठित करें. लेकिन गडकरी ने यह जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया और समिति का गठन किए बिना ही नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान की बागडोर संभाले जाने की घोषणा कर दी गई. आडवाणी इस बैठक में उपस्थित नहीं थे और उन्हें यह बात बहुत नागवार गुजरी कि उनके द्वारा प्रस्तावित समिति का गठन किए बगैर नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा कर दी गई, वह भी उनकी अनुपस्थिति में.

उनके इस्तीफा देते ही खलबली मच गई और सोमवार की शाम पार्टी के संसदीय बोर्ड ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर आडवाणी से इस्तीफा वापस लेने को कहा. लेकिन उन्होंने इस्तीफा मंगलवार को तब वापस लिया जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने उनसे ऐसा करने का आग्रह किया. संघ भाजपा का मातृ संगठन है और पिछले कुछ वर्षों से आडवाणी की कोशिश रही है कि पार्टी के कामकाज में उसका दखल न हो और वह केवल वैचारिक मार्गदर्शक की भूमिका निभाए. लेकिन उन्होंने स्वयं संघ प्रमुख के हस्तक्षेप के बाद इस्तीफा वापस लेकर अब उसके पार्टी संगठन में वर्चस्व पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी है.

आडवाणी 85 वर्ष के हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में वह भाजपा के नेतृत्व वाले राजग की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किए गए थे. उस समय पार्टी के पास कोई और नेता भी नहीं था जिसे वह पेश करती. लेकिन पिछले चार वर्षों में पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में असाधारण वृद्धि हुई है. देश का उद्योग जगत भी उनके समर्थन में सामने आया है और भाजपा के अधिकांश नेताओं को लगता है कि मोदी देश के युवाओं की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और पार्टी को चुनाव जितवा सकते हैं. लेकिन आडवाणी ने अभी भी प्रधानमंत्री बनने और पार्टी संगठन को अपनी इच्छानुसार चलाने की आकांक्षा नहीं छोड़ी है. इसके अलावा वह मोदी के काम करने के तानाशाही तौर-तरीकों और अपनी छवि को पार्टी की छवि से बड़ा करके पेश करने की आदत के प्रति सशंकित हैं. ऐसे नेता का पार्टी संगठन पर हावी होना या देश का प्रधानमंत्री बनना उन्हें बहुत आश्वस्त नहीं करता. लेकिन मोदी के इस उभार के बीच स्वयं आडवाणी का हाथ है. 2002 में गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे लेकिन तब आडवाणी और उनके समर्थकों के अड़ जाने के कारण ऐसा नहीं हो पाया. कुछ समय पहले तक आडवाणी मोदी की तारीफ करते थकते नहीं थे॰

अपने इस्तीफे में आडवाणी ने पार्टी के कामकाज और अधिकांश नेताओं के व्यक्तिगत एजेंडे के बारे में भी गंभीर टिप्पणियां की हैं और कहा है कि अब वह पहले जैसी आदर्शवादी पार्टी नहीं रही. इस्तीफा वापस लेने के बाद भी ये आरोप तो अपनी जगह बने ही रहते हैं. हालांकि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने आश्वासन दिया है कि उनकी शिकायतों को दूर करने की पूरी कोशिश की जाएगी, पर उन्होंने आडवाणी की कोई भी मांग नहीं मानी है.

विचित्र बात यह है कि आडवाणी को पार्टी के भीतर बहुत कम और पार्टी के बाहर बहुत अधिक समर्थन मिला है. दरअसल एनडीए में शिव सेना के अलावा अन्य दल नरेंद्र मोदी को गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की तरह चुनाव मैदान में उतारे जाने के पक्ष में नहीं है. राजग के संयोजक और जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव और उनकी पार्टी के अन्य नेता आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं. पार्टी के महत्वपूर्ण नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के बिहार में प्रचार करने पर ही रोक लगा दी थी. वह भी कई बार ऐसा संकेत दे चुके हैं कि कट्टर हिंदुत्ववादी छवि के कारण नरेंद्र मोदी उनकी पार्टी को स्वीकार्य नहीं होंगे. इस संदर्भ में दिलचस्प तथ्य यह है कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद के वर्षों में इसी तरह की छवि के कारण आडवाणी अन्य दलों को स्वीकार्य नहीं थे और इसीलिए भाजपा को पहले प्रमुख विपक्षी दल और बाद में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले आडवाणी के स्थान पर अटलबिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया गया था. लेकिन आज वही आडवाणी अन्य दलों को नरेंद्र मोदी की तुलना में कम हिंदुत्ववादी लग रहे हैं.

आडवाणी के इस्तीफे और उसकी वापसी से दो तीन बातें स्पष्ट हो गई हैं. एक तो यह कि अब अटल-आडवाणी युग समाप्त हो गया है और पार्टी के युवा नेता आडवाणी के प्रति पूरा सम्मान दिखाने के बावजूद उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं. दूसरी यह कि भाजपा के नेताओं में भारी गुटबंदी है, और तीसरी यह कि पार्टी ने एक बार फिर कट्टर हिन्दुत्व का परचम लहराने का फैसला कर लिया है. इस्तीफे के प्रकरण से आडवाणी जैसे शीर्षस्थ नेता की छवि धूमिल ही हुई है॰

ब्लॉगः कुलदीप कुमार, दिल्ली

संपादनः एन रंजन

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