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अब कभी नहीं आएगा तार

१७ जून २०१३

तार, हरी भरी सर्दियों की काली रात मे सन्नाटे को चीरती घर के बाहर यह आवाज अच्छे अच्छों के होश उड़ा देती थी.

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तस्वीर: gemeinfrei

गरम रजाई से बाहर निकल कर घर का कोई बड़ा डाकिये के रजिस्टर पर दस्तखत करके उस मुड़े हुए कागज को, जिसे टेलीग्राम या तार कहा जाता था, खोल कर डरे मन से पढ़ता था. उन कुछ पलों मे घर के हर सदस्य के मन मे ना जाने कितने विचार आते थे. जो भी होते थे बुरे ही होते थे. रिश्तेदारों मे जितने बुजुर्ग या बीमार होते थे सबसे पहले उनका ख्याल मन मे आता था. कहीं कुछ अपशकुन तो नहीं हुआ? कई बार यह सच होता भी था.

यह वो जमाना था जब मोबाइल फोन या इंटरनेट तो दूर अधिकतर लोगों के घर मे टेलीफोन भी नहीं होता था और हाल चाल या अच्छे बुरे की खबर देने का एक मात्र जरिया टेलीग्राम ही होता था. सरकार ने घोषणा की है कि 150 साल से भी ज्यादा पुरानी सेवा 15 जुलाई को बंद हो जायेगी तो लगता है जैसे एक युग का अंत हो गया हो. (अब नहीं बनेगा टाइपराइटर)

भारत मे सबसे पहला टेलीग्राम कोलकता से डायमंड हार्बर 5 नवंबर 1850 को भेजा गया था. आधिकारिक रूप से आम जनता के लिए इसका उपयोग फरवरी 1855 में शुरू हुआ. तब से जब तक इंटरनेट या मोबाइल का जमाना नहीं आया टेलीग्राम भारतीय जन जीवन से जुड़ा रहा.

टेलीग्राम मे मॉर्स कोड का इस्तेमाल किया जाता था. किसी शहर से एक टेलीग्राफ ऑपरेटर टिक टिक टिक टिका टिक की ताल पर दूसरे शहर मे बैठे ऑपरेटर को इस कोड के जरिये संदेश भेजता था. इस संदेश को कागज की छोटी छोटी पर्चियों पर लिख कर एक दूसरे बड़े कागज पर चिपकाया जाता था और उस कागज को लेकर डाकिया साइकिल पर घर घर जाता था.

हर शहर में सीटीओ यानी सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस एक ऐसी इमारत होती थी जहां कई ऑपरेटर दिन-रात बैठ कर संदेश टाइप करते रहते थे. भले ही सारा शहर अंधेरे मे डूबा हो सीटीओ ही एक मात्र बिल्डिंग होती थी जहां रात को दफ्तर के बाहर धीमी सी रोशनी होती और एक छोटे से खोके मे चाय की दुकान गर्म रहती क्योंकि टेलीग्राम भेजने के लिये लोगों को परेशानी दूर करने वही एक उपाय था.

ऐसा नहीं की टेलीग्राम हमेशा बुरा संदेश ही लाता था. जन्म दिन की मुबारकबाद हो या फिर नौकरी के इंटरव्यू का संदेश या फिर घर मे नये मेहमान के आने की खबर, टेलीग्राम सब खबरें लाता था. यहां तक की पत्रकार भी स्पॉट से अपनी रिपोर्ट टेलीग्राम के जरिये भेजा करते थे. यह बात अलग है कि ऑफिस मे सब एडिटर को टेलीग्राम की पर्चियों को जोड़ कर दुबारा टाइप करने मे अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ती थी.

मजा तब आता था जब ऑपरेटर की गलती से गलत संदेश पहुंच जाता. समय बचाने के लिए कुछ रोजमर्रा के संदेशों को नंबर दिये जाते थे. जैसे की अगर जन्मदिन पर बधाई का संदेश हो तो नंबर २ हो सकता था और मौत की खबर के लिये नंबर 1 और बच्चा होने की खबर के लिये नंबर 3. कई बार किसी 80 या 85 साल की महिला के निधन के बदले उनके बच्चा होने का संदेश बन गया और जन्म दिन का संदेश मौत मे बदल गया. अकसर ऐसा भी होता था कि जैसे कोई व्यक्ति अचानक मुंबई से चलने से पहले अपने रिश्तेदारों को अपने आने की खबर टेलीग्राम के जरिये दिल्ली भेजे. लेकिन कई दफा होता कि दिल्ली पहुंच कर खुद ही अपना भेजा टेलीग्राम डाकिये से ले.

दिल्ली मे अब चीफ टेलीग्राफ मास्टर बन चुके आरडी राम ने ३८ साल सीटीओ में टेलीग्राम संदेश टाइप करने और भेजने का काम कर चुके हैं. उनका मानना है कि मौत और जन्मदिन के बाद सबसे ज्यादा संदेश नौजवान लड़के-लड़कियों के होते थे जो घर से भाग कर शादी करके अपने माता-पिता को टेलीग्राम के जरिये खबर दिया करते थे. आज उस टेलीग्राम की जगह मोबाइल फोन के एसएमएस ने ले ली है.

मजे की बात यह है कि भले ही टेकनोलॉजी कहां से कहां पहुंच गई हो भारत के राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित लोगों को इसकी खबर अभी भी टेलीग्राम के जरिए ही दी जाती है. रेलवे की नौकरी के लिये परीक्षा की सूचना और उसके नतीजे भी टेलीग्राम से ही भेजे जाते हैं. यहां तक कि सैनिकों की छुट्टी और तबादले की खबर के लिये भी टेलीग्राम का ही इस्तमाल होता है. आज भी 5000 से ज्यादा टेलीग्राम भेजे जाते हैं. दिल्ली के इस्टर्न कोर्ट में मौजूद सीटीओ में वर्ष 2008 तक 22,000 लोग काम करते थे. 1986 के बाद से यहां कोई नई नियुक्ति नहीं हुई और अब टेलीग्राफ विभाग में केवल 989 कर्मचारी हैं.

भारत संचार निगम लिमिटेड के सीनियर जनरल मैनेजर शमीम अख्तर के मुताबिक टेलीग्राफ विभाग 135 करोड़ रुपये के घाटे से जूझ रहा है. शायद इसी वजह से टेलीग्राम सेवा बंद की जा रही है. इतना जरूर है कि सालों से चली आ रही इस सेवा को इतनी आसानी से भुलाया नहीं जा सकेगा.

ब्लॉगः नोरिस प्रीतम, दिल्ली

संपादनः एन रंजन

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