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जान बचाई टेलीग्राम ने

२३ जुलाई २०१३

डाक तार का दौर तो खत्म हो गया है लेकिन इससे जुड़ी कई मजेदार यादें हमारे पाठकों ने हमारे साथ साझा की हैं.

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तस्वीर: Reuters

"दंगे शुरू, लाहौर मिलटरी कैंप पहुंचो" मेरे पापा के लाहौर से किए गए इस तार ने पूरे परिवार की जान बचाई. शायद इसी तार की वजह से मैं आज जीवित हूं. इससे ज्यादा क्या किसी चीज की अहमियत होगी जिसने आपकी और पूरे परिवार की जान बचाई हो. धन्यवाद और अलविदा तार.

-ऋतु रानी


जिस समय टेलीफोन इतना आम नहीं था उन दिनों टेलीग्राम ही तेजी से संचार का एक माध्यम था. बच्चे के जन्म, मौत के संदेशों को टेलीग्राम के माध्यम से परिवार के सदस्यों के लिए भेजा जाता था. 11 फरवरी 1978 को मुझे अपने ससुरजी से तार मिला कि हमारे यहां बेटा पैदा हुआ है. ध्यान देने की बात है कि उस समय परिवार में पुत्र होने की सूचना तार से दी जाती थी जबकि एक बेटी का जन्म केवल एक पोस्टकार्ड से सूचित किया गया था.

-डॉ.पीसी गुप्ता, जयपुर, राजस्थान

टेलीग्राम अर्थात तार आज के जमाने के बच्चों को पता ही नहीं है कि ये क्या चीज होती थी. सुख से ज्यादा दुख की खबरें ही आया करती थीं. जब गांव में तार बाबू आता था तो एक अजीब बेचैनी सी छा जाती थी कि तार किसके यहां आ रहा है. लगभग 40 साल पहले की बात है मेरे बाबा जी गांव में अपने घर के सामने बैठे थे. तभी एक 50 वर्षीय महिला लगभग रोते हुए बाबा के पास आयीं और कहा कि वह दवा कराने मुंबई एकलौते बहू बेटे के पास गये हैं. 15 दिन हो गये. मैं रोज बुरे बुरे सपने देखती हूं और आज एक टेलीग्राम आया है कोई पढ़ने वाला नहीं है. बाबा जी ने उनसे तार मांगा और पढ़ा तो पता चला कि उनके पति की तबियत अच्छी हो रही है और बहू शादी के 5 साल बाद मां बनने वाली है. मेरे बाबा जी बताते हैं कि वो महिला दुख के आंसू छोड़ खुशी के आंसू बहाने लगी. बाबा जी ने बताया कि बहुतों के तार हमनें पढ़े थे, कई में किसी के मरने की सूचना होती थी तो कभी किसी के आने जाने या शादी की सूचनाएं होती. मुझे कभी भी टेलीग्राम की जरुरत नहीं पडी शायद मेरा जन्म ही कुछ आधुनिक जमाने में हुआ था.

-शक्ति सिंह प्रतापगढ़ी

Indien Telegraf Dienst
तस्वीर: Sanjay Kanojia/AFP/Getty Images

बात साल 2008 की है जब मेरा 10वीं कक्षा का रिजल्ट आया तो मेरी सहेली ने मुझे तार भेजा जिसमें लिखा था तुम एक अंक से रह गई हो, यकीन नहीं हुआ. जब मैंने रिजल्ट देखा तो पता लगा कि प्रथम श्रेणी के लिए एक अंक कम पड़ गया.

-रचिता कंसल, कुरुक्षेत्र, हरियाणा

टेलीग्राम से संबंधित एक यादगार पल के बारे में आपको बता रहा हूं जिसे मैं कभी नहीं भुला सकता. जब मैं अपना पहला व आखिरी टेलीग्राम कर रहा था तो उस समय मुझे टेलीग्राम के बारे मे कुछ पता नहीं था. बस चुपचाप लाइन में टेलीग्राम करने के लिए खड़ा था क्योंकि मैं अपना पहला टेलीग्राम कर रहा था इसलिए मैं यह सोच रहा था कि आखिर यह एक टेलीग्राम कितने ग्राम का होता है और एक टेलीग्राम करने में कितने पैसे लगते है? वो पहला व आखिरी टेलीग्राम मैने अपने दादाजी को किया था और उस समय मेरा टेलीग्राम पाकर दादाजी बहुत खुश हुए थे. बस मेरे मन में एक आशा थी कि टेलीग्राम कभी बंद नहीं हो लेकिन ऐसा हो नहीं सका.

-अमित कुमार, नई दिल्ली

टेलीग्राम आज भले ही कोई इस्तेमाल न करता हो पर एक जमाना था जब तेजी से कोई सूचना पहुंचाने का केवल यही एक माध्यम था. यह कितने ही परिवारों का यह सुख दुख में साथी रहा है. कितने सारे फर्जी तार इसलिए भेजे जाते थे कि परदेसी को छुट्टी मिल जाए. मेरी दादी मेरे दादा को छुट्टी दिलाने के लिए कभी अपनी या फिर कभी परिवार के किसी और सदस्य को बीमार बता कर उन्हें छुट्टी दिलवाती थीं.

-सलमा बानो, रायबरेली, उत्तर प्रदेश

1996 में मैं अपने एक काम के सिलसिले में कराची गया हुआ था, जो हमारे शहर से 455 किलोमीटर दूर है. वहां पर मुझे अपने प्रोग्राम से हट कर एक दिन ज्यादा रहना पड़ गया, तो मैंने घर वालों को टेलीग्राम भेजा कि आज तो नहीं, कल शाम तक मैं घर आ जाऊंगा. अगले दिन जुमे की छुटी थी. मैं जुमा की शाम को घर आ गया. अगली सुबह शनिवार को डाक वाला वही टेलीग्राम लेकर आया जिसे मैंने खुद वसूल किया. पूछने पर उसने बताया कि बृहस्पति को टेलीग्राम पहुंचाने वाले की शादी थी, वो न आया, कल जुमा की छुटी थी, आज मैं ले आया हूं!! तो जनाब ऐसा भी कभी कभी हो जाता था.

-आजम अली सुमरो, खैरपुर मीरस सिंध, पाकिस्तान

मैंने पहला टेलीग्राम 1978 में अपने पिता के लिए भेजा था. वो मद्रास (अब चेन्नई) में आर्मी में थे. उस समय मेरी मां बहुत बीमार थीं. यही एक संचार का तेज साधन था क्योंकि सूचना शीघ्र पहुंचाने के लिए यही एकमात्र विकल्प था.

-संजय कुमार शर्मा, गांव गढ़ी उम्मेद, जिला फिरोजाबाद

संकलनः विनोद चढ्डा

संपादनः आभा मोंढे

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