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म्यांमार में जनविद्रोह के 25 साल

८ अगस्त २०१३

म्यांमार में लोकतांत्रिक आंदोलन की शुरुआत 1988 में एक विद्रोह के साथ शुरू हुई थी. आंदोलन के पीछे कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि सैनिक शासन के खिलाफ आक्रोश था. संगठित विरोध ने बाद में विद्रोह का स्वरूप लिया.

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तस्वीर: DW/Tun Lynn

रंगून इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के पास एक टी हाउस में 12 मार्च 1988 को छात्रों और कुछ युवाओं में झगड़ा हो गया. युवाओं को सजा नहीं मिली क्योंकि उनमें से एक स्थानीय नेता का लड़का था. खुलेआम पक्षपात की इस घटना से गुस्सा होकर छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया. कुख्यात दंगा विरोधी पुलिस लोन ह्तेन के साथ हुई झड़पों में 23 वर्षीय छात्र माउंग फोन माउ गोलियों से मारा गया. वह उसके बाद भड़के उपद्रवों में मारे जाने वाले लोगों में पहला आंदोलनकारी था.

कुप्रबंध का इतिहास

टी हाउस में हुई घटना वह बूंद थी जिसने पाप के घड़े को भर दिया था. सेना के साथ निकट रूप से जुड़ी समाजवादी पार्टी ने 1962 में जब से सत्ता हासिल की थी, म्यांमार की अर्थव्यवस्था लगातार खराब हो रही थी. 1988 के पहले के दशकों में भाई भतीजावाद वाली और संरक्षणवादी भ्रष्ट व्यवस्था स्थापित हो गई थी, जिसे पूरे देश में मा लोकस मा शोट, मा प्योत के नाम से पुकारा जाने लगा था, जिसका मतलब है, काम नहीं, जिम्मेदारी नहीं, नौकरी से निकालने न दो.

उपनिवेशी शासन से आजादी के बाद म्यांमार दक्षिण पूर्वी एशिया के सबसे समृद्ध देशों में शामिल हो सकता था क्योंकि उसके पास प्रचुर प्राकृतिक संपदा है. लेकिन आम लोगों की आर्थिक हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. 1985 तक कीमतें अपेक्षाकृत स्थिर रहीं, लेकिन दशक के अंतिम वर्षों में तेजी से बढ़ी, जबकि लोगों का वेतन उतना ही था. यहां तक कि सेना, नेता और समृद्ध वर्ग भी काला बाजार पर निर्भर हो गया था.

राष्ट्रीय गौरव को धक्का

मुद्रास्फीति और कालाबाजारी पर काबू पाने के लिए सरकार ने रातोंरात 25, 35 और 75 क्यात के नोटों को खारिज कर दिया. इसके तीन महीने बाद संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार को कम विकसित देशों की सूची में शामिल कर दिया. 1971 से तैयार होने वाली यह सूची दरअसल कम विकसित देशों की सहायता के लिए थी, लेकिन म्यांमार ने अचानक अपने आप को विश्व के सबसे गरीब देशों की श्रेणी में पाया. उस समय आंदोलन में हिस्सा लेने वाले थीहा शॉ कहते हैं, "मुद्रा को अमान्य करने का असर लोगों की जेब पर हुआ, लेकिन कम विकसित देशों की सूची में शामिल किए जाने से राष्ट्रीय गौरव को धक्का लगा."

Infografik Lebenshaltungskosten in Myanmar 1979-1989
1979-1989 के दौरान म्यांमार में महंगाई

टी हाउस की घटना के बाद कई बड़े प्रदर्शन हुए. लोग प्रदर्शनों में लाल झंडे और लड़ते मुर्गों की तस्वीर लेकर जाते. बाद में यह विपक्षी नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी एनएलडी का प्रतीक चिह्न बन गया. पहले लोग डोह आयाई यानि हमारा मामला के नारे लगाते, बाद में वे डे-मो-क्रे-सी के नारे लगाने लगे हालांकि लोगों को पता नहीं था कि डेमोक्रेसी का क्या मतलब है. अब एनएलडी के बड़े नेता नियान विन भी स्वीकार करते हैं, "मुझे भी पता नहीं था कि डेमोक्रेसी है क्या."

सारे देश में विद्रोह

उस समय व्यापार मंत्री रहे खिन माउंग गी का मानना है कि विरोध प्रदर्शनों को राजनीतिक बनाने में विपक्षी ताकतों और कम्युनिस्टों का हाथ था. "उकसाने वाले लोगों ने छात्रों के गुस्से का इस्तेमाल किया." थीहा शॉ का कहना है कि उस समय की सरकारी पार्टी और उसकी उत्तराधिकारी नेशनल यूनिटी पार्टी समझ नहीं पाई है कि कोई कम्युनिस्ट या बाहरी साजिश नहीं थी, बल्कि लोग अपनी परेशानियों और गुस्से का इजहार करना चाहते थे. विरोध प्रदर्शन सिर्फ राजधानी रंगून तक ही सीमित नहीं रहे. देश भर में प्रदर्शन हुए और पुलिस के साथ झड़पें हुईं.

शुरू से ही अल्पसंख्यक समुदाय भी सरकार विरोधियों के साथ था. कारेन अल्पसंख्यक समुदाय के एलन शॉ ओ कहते हैं, "जब प्रदर्शन शुरू हुए, तो हम लोगों के साथ थे. ये एक बहुजातीय आंदोलन था. अल्पसंख्यकों ने बर्मा के बहुमत का समर्थन किया था, क्योंकि वे महसूस कर रहे थे कि सरकार के डंडे तले उन सबकी किस्मत एक जैसी थी. "

अक्षम राजनीतिक दल

निरंकुश शासन कर रही बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी व्यवस्था बहाल करने में नाकाम रही. न तो पार्टी की विशेष कांग्रेस और न ही 1962 से सत्ता पर काबिज जनरल ने विन का इस्तीफा देश में शांति ला सका. जनरल के इस्तीफे के बाद आंदोलन और बढ़ गया. बहुदलीय व्यवस्था कायम करने और चुनाव आयोग बनाने का आश्वासन भी काम नहीं आया. खिन माउंग गी कहते हैं कि सरकार के पास समय की कमी थी, "छात्र बहुत बेताब थे और बहुत जल्दी नतीजे चाहते थे." आज के नजरिए से देखें तो समय की कमी से ज्यादा भरोसे का अभाव था. विपक्ष ने सरकार द्वारा बनाए गए चुनाव आयोग को खारिज कर दिया.

Myanmar Proteste Mönche Archivbild 27.08.1988
तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

समझौता करने में सरकार की विफलता और विपक्ष की अक्षमता की वजह से अराजकता फैल गई. सुरक्षा बलों ने सख्ती करनी शुरू कर दी. देश भर में सैकड़ों लोग मारे गए, हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. लोगों के साथ दुर्व्यवहार हुआ और उन्हें यातना दी गई. लेकिन प्रदर्शनकारियों ने भी हिंसा की. थीहा शॉ कहते हैं, "कुछ आंदोलनकारी हिंसक थे. कभी कभी लोगों ने पुलिस चौकियों पर हमला किया, हथियार लूटे और सैनिकों पर गोलियां चलाईं." खुफिया एजेंसी के संदिग्ध एजेंटों को भीड़ ने सड़कों पर मार डाला. पूर्व व्यापार मंत्री खिन माउंग गी कहते हैं, "यह राजनीतिक आंदोलन नहीं था. यह बर्बरता थी."

राष्ट्रीय हीरो की बेटी

घटनाओं को तब नई गति मिली जब देश को ब्रिटिश शासन से आजाद कराने वाले राष्ट्रीय हीरो आंग सान की बेटी आंग सान सू ची ने राजनीतिक मंच पर कदम रखा. पांच लाख लोगों के सामने अपने पहले सार्वजनिक भाषण में उन्होंने बर्मा के लिए राष्ट्रीय आजादी की दूसरी लड़ाई का आह्वान किया. इस भाषण के साथ बाद में उनकी ख्याति फैली, जिसने उन्हें देश और विदेश में सैनिक शासन के विरोध का प्रतीक बना दिया.

अगस्त में राजनीतिक आंदोलन की नींव पड़ी. छात्रों ने छात्र संगठन बनाए. राजनीतिक लक्ष्य तय किए, उन पर बहस शुरू हुई. 08.08.88 को छात्रों ने आम हड़ताल की. यह तारीख जनविद्रोह का प्रतीक बन गई. सितंबर में सू ची, तिन ओ और आंग गी ने विपक्षी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी का गठन किया. लेकिन उनके पास राजनीतिक ताकत के इस्तेमाल का मौका नहीं था क्योंकि सेना ने 18 सितंबर के विद्रोह को दबा दिया था. शाम चार बजे सरकारी रेडियो ने घोषणा की कि कानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए सेना ने सब कुछ नियंत्रण ले लिया है.

उसके बाद के सालों में सू ची आम तौर पर नजरबंद रहीं. लेकिन इस बीच सेना ने नियंत्रित चुनाव करा कर सत्ता असैनिक सरकार को सौंप दी है. नई सरकार ने सू ची को रिहा कर दिया गया है और वे अब संसद की सदस्य भी है. 2011 से म्यांमार अपने को दुनिया के सामने खोल रहा है.

रिपोर्ट: रोडियॉन एबिषहाउजेन/एमजे

संपादन: आभा मोंढे

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