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तय करिए कितना सोना है

२१ अक्टूबर २०१३

हम कभी नहीं जान पाएंगे कि जब उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डौंडिया खेड़ा गांव डेढ़ सौ साल पहले से पुरातत्विक महत्त्व और पुरातत्वविदों के एजेंडे में रहा है तो वहां अब खुदाई की नौबत क्यों आई. इससे पहले क्यों नहीं?

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तस्वीर: DW/S. Waheed

संत कहे जाने वाले शोभन सरकार को सपना न आता और वो सपने की बात अपने शिष्यों को न बताते और वे शिष्य आननफानन में इसके चर्चे न छेड़ देते और सरकार से न कहते तो सरकार का अमला न जागता.

लोग कहते हैं कि ये देश है ही ऐसा- चमत्कारों भूतप्रेतों अंधविश्वासों जादू टोनों और मनगढंत किस्सों का देश. यहां कोई सही काम भी करना हो तो उसे धार्मिक वितंडाओं के अंधेरों से गुजरना पड़ता है. लेकिन ये देश यही तो नहीं रहा है. यहां जीवन से लेकर संस्कृति तक, समाज से लेकर राजनीति तक और गणित से लेकर इतिहास तक के फलसफे और आख्यान रचे और गढ़े गए हैं. यहां पोथी पुराण से पहले विद्वता और विवेक के परचम लहराए जाते रहे हैं. बौद्धिकता, समझ और मीमांसा का एक प्रमुख केंद्र रहा है भारत. आज उस भारत की 21वीं सदी में धर्म एक व्यापार हो गया है, जाति एक नफरत और राजनीति एक मुनाफा. जो सच बोलते हैं उन्हें मार दिया जाता है या धकेल दिया जाता है.

सरकारी एजेंसियां अकबकाई सी रह जाती हैं. वे अपनी ही देखी और विश्लेषित की हुई जगह में जैसे हिप्नोटाइज होकर खुदाई शुरू कर देते हैं(जो काम यूं भी होना था) फिर सोने को देखने के लिए भीड़ जुटती है. मीडिया जुटता है. फिर अचानक एक दिन ये सब गायब हो जाता है जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हैं और ये सीन पूरा हुआ. क्या हम अतिरंजनाओं और अतिशयताओं में जीने वाले लोग हैं. क्या हमारी तर्कविद्या का लोप हुआ. हमारे मीडिया का लोप कहां हुआ. वो हमें क्या बनाने पर तुला है. और अचानक इस मामले में उसने कैसी पलटी खाई है. सब जैसे चिंहुक कर बगलें झांक रहे हैं कि नतमस्तक सी कवरेज में किसी ने हमें देखा तो नहीं.

तीन दिन के भीतर ही स्पष्टीकरण आने लगे. एएसआई का अलग, जीएसआई का अलग, केंद्र सरकार का अलग, संस्कृति मंत्रालय का अलग. खुदाई किसी सपने के आधार पर नहीं, तय शेड्युल के तहत की जा रही है, किसी सपने से इसका लेना देना नहीं और ये भी बताया गया कि वहां कुछ धातुएं हो सकती हैं. वो कोई जरूरी नहीं कि सोना ही हो. एएसआई हर साल सैकड़ों जगहों में खुदाई करती है. देश की विरासत की खोज और पुरातत्विक महत्त्व की खुदाईयां उसके काम का हिस्सा हैं. आखिर उन्नाव की खुदाई अगर तय थी और वहां पहले से एएसआई की निशानदेही थी तो फिर साधु और सपना और सोना कहां से आ गए. सपने की और सोने की बात किसने और कब जोड़ दी. कब मीडिया ने उसे एक इवेंट में बदल दिया.

ज्यादा दिन नहीं हुए जब एक तर्कवादी विद्वान और सोशल एक्टिविस्ट नरेंद्र दाभोलकर की हत्या कर दी गई थी. वो धर्म और अंधविश्वास के धंधे पर टिकी वैचारिकता में तोड़फोड़ की हिमाकत कर रहे थे और जिसे सत्ता राजनीति का प्रश्रय प्राप्त रहा है. दाभोलकर के हत्यारों का पता नहीं चला है. काश, हमारे टीवी पर युद्धस्तर पर कोई ऐसा अभियान उनके हत्यारों को पकड़ने के लिए दबाव बनाने या अंधविश्वास के खिलाफ विहंगम कवरेज को समर्पित होता जैसा पिछले कुछ दिनों से हम डौंडिया खेड़ा कांड देख रहे हैं.

जब देश में मुक्त बाजार आ गया था और निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए गए थे, उस नब्बे के दशक के बीचोंबीच यानी 1995 में गणेश की मूर्ति के दूध पीने की घटना हुई थी. तमाम मूर्तियों ने हजारों लाखों घन लीटर दूध सोख लिया था. वो दूध भूखे प्यासे बच्चों तक जा सकता था लेकिन मूर्तियों पर बहाया गया. स्वतःस्फूर्त सन्निपात का अखिल भारतीय माहौल बन गया था. कमोबेश ऐसी ही स्थिति सोने की खोज के लिए नजर आई. इतना मानना पड़ेगा कि टीवी चैनलों की मजम्मत न्यू मीडिया पर खूब हुई और लोग इस तमाशे पर हैरान और क्षुब्ध हुए कि आखिर एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का क्या सत्यानाश हम कर रहे हैं. खुदाई के तार बरसों पुराने अध्ययन और शोध से न जोड़कर सपने से जोड़े गए.

अब कैसी शर्मिंदगी. यहां तो सब चलता है. सोना हो तब भी सोना न हो तब भी. ये एक ऐसा टीवी युग है जहां आसाराम कांड और निर्मल दरबार और स्वप्न-खुदाई कांड एक साथ और बड़े पैमाने पर पहले मीडिया कंटेंट और फिर मीडिया इवेंट बन जाते हैं. अभी हमें और स्तब्ध होना है, देखते रहिए.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः एन रंजन