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डॉक्टरों की कमी से जूझता भारत

३१ अक्टूबर २०१३

एक अनार सौ बीमार की कहावत तो आपने सुनी ही होगी. लेकिन बीमारों की तादाद अगर लाखों में हो तो! हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह और टीबी जैसी जानलेवा बीमारियों के मामले में यही कहावत चरितार्थ हो रही है.

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तस्वीर: Fotolia

देश में इन बीमारियों के इलाज के लिए समुचित विशेषज्ञों का भारी टोटा है. पूरी दुनिया में दिल के दौरों और इससे संबंधित बीमारियों से सालाना 1.73 करोड़ लोगों की मौत होती है. इसमें से 60 फीसद मौतें भारत में होती हैं.

खतरनाक होती बीमारी

भारत में दिल की बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं. इनमें दिल का दौरा और इससे संबधित दूसरी बीमारियां शामिल हैं. खान-पान की आदतों और जीवनशैली में बदलाव के साथ बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण की वजह से भारत को अब दिल के दौरे की राजधानी कहा जाने लगा है. लेकिन देश में इसके इलाज के लिए प्रशिक्षित विशेषज्ञों की भारी कमी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि वर्ष 2015 तक भारत में यह बीमारी खतरनाक स्तर तक पहुंच जाएगी. देश में फिलहाल 1.2 अरब लोग दिल की विभिन्न बीमारियों की चपेट में हैं. यहां हर साल होने वाली मौतों में दिल की बीमारियों से मरने वालों की तादाद 19 फीसदी है.

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आसीएमआर) के एक ताजा सर्वेक्षण में इन तथ्यों के खुलासे ने देश में चिकित्सा के आधारभूत ढांचे को कटघरे में खड़ा कर दिया है. विशेषज्ञों का कहना है कि दिल के दौरे के 50 फीसदी मामले 50 साल से कम उम्र वालों में होते हैं. इसी तरह 40 साल से कम उम्र के लोगों में यह आंकड़ा 25 फीसदी है. महानगर के एक अस्पताल के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर स्वागत चौधरी कहते हैं, "पांच साल पहले तक युवा उम्र के लोगों में इन बीमारियों के बहुत कम मामले सामने आते थे. लेकिन अब उनमें इसकी तादाद बढ़ रही है. अब खासकर 25 से 35 साल की उम्र वाले लोगों में ढेरों ऐसे मामले सामने आ रहे हैं. यह एक खतरनाक संकेत है."

Herzchirurgie in Indien
कैंसर के इलाज में विषेज्ञता हासिल करने के लिए पूरे देश में महज 48 सीटें हैं.तस्वीर: DW

विशेषज्ञों की कमी

दिल की बीमारियों के लगातार खतरनाक होते स्तर के बावजूद देश में इसका इलाज करने वाले विशेषज्ञ चिकित्सकों की भारी कमी है. हर साल 250 हृदय रोग विशेषज्ञ कॉलेजों से पोस्ट ग्रेजुएट होकर निकलते हैं. भारत में सरकारी व निजी क्षेत्र में 381 मेडिकल कॉलेज हैं. लेकिन वहां पोस्ट ग्रेजुएशन के स्तर पर सीटों की तादाद बहुत ही कम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक टीबी भारत में होने वाली मौतों की छठी सबसे बड़ी वजह है. लेकिन हर साल इसके लगभग 300 विशेषज्ञ ही पास होकर निकलते हैं.

यही स्थिति मधुमेह के मामले में है. देश में एंडोक्रिनोलॉजी के मामले में पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर महज 50 सीटें हैं. हाल के वर्षों में सबसे जानलेवा बीमारी के तौर पर उभरने वाले कैंसर के इलाज में विषेज्ञता हासिल करने के लिए पूरे देश में महज 48 सीटें हैं. इसके मुकाबले अमेरिका में इसके लिए 508 सीटें हैं. दूसरी ओर नॉन-क्लीनिकल यानी गैर चिकित्सकीय विषयों में सीटों की तादाद बहुत ज्यादा है, लेकिन क्लीनिकल विषयों में बहुत कम. यह स्थिति विरोधाभासी है.

क्या है वजह

आखिर इस स्थिति की वजह क्या है? छात्रों की कमी नहीं होने के बावजूद आखिर इन बीमारियों के लिए विशेषज्ञता हासिल करने के लिए सीटों की तादाद क्यों नहीं बढ़ाई जा रही है? इस सवाल का जवाब है आधारभूत ढांचे का अभाव और योग्य चिकित्सा शिक्षकों की कमी.

मेडिकल कॉलेज के संचालकों की दलील है कि एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने के बाद ज्यादातर छात्र विशेषज्ञता हासिल करने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करते हैं. यही वजह है कि देश में पोस्ट ग्रेजुएशन स्तर पर विशेषज्ञता वाली सीटों की तादाद बढ़ाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही है.

भारतीय चिकित्सा परिषद के संचालन मंडल के सदस्य और जाने माने हदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर देवी शेट्टी कहते हैं, "गैर चिकित्सकीय विषयों की मांग कम है. छात्र बेहद मजबूरी में ही ऐसे विषयों का चुनाव करते हैं जिनका मरीज के इलाज से कोई सीधा संबंध नहीं होता."

किसी का ध्यान नहीं

दिलचस्प बात यह है कि पोस्ट ग्रेजुएशन में सीटों की तादाद अगर कभी बढ़ती भी है तो इन विषयों में ही. डॉक्टर अभिषेक मंडल कहते हैं, "अगर देश में बेहतर पढ़ाई की सुविधा हो तो छात्र मोटी रकम खर्च के विदेश क्यों जाएंगे?" वह कहते हैं कि बीमारियों के प्रसार पर निगरानी रखने और उसके साथ तालमेल बिठा कर उसी के अनुरूप मेडिकल कॉलेजों में सीटों की तादाद बढ़ाने या घटाने का कोई तंत्र ही विकसित नहीं हो सका है. न तो मेडिकल कॉलेज प्रबंधन का इस ओर कोई ध्यान है और ना ही सरकार का.

पिछले महीने ही दक्षिण भारतीय निजी मेडिकल कॉलेजों में एमडी (रेडियोलॉजी) की एक सीट चार करोड़ रुपए में नीलाम हुई. अब अगर गैर चिकित्सकीय विषयों के सीटों से ही इतनी भारी कमाई है तो मेडिकल कॉलेज प्रबंधन नए विषयों की पढ़ाई पर भारी भरकम रकम क्यों खर्च करेगा? इसके लिए तमाम आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर भारी निवेश होगा.

विशेषज्ञों का कहना है कि हृदय, मधुमेह, टीबी और कैंसर जैसी प्रमुख बीमारियों की विशेषज्ञता वाली पोस्ट ग्रेजुएट सीटों की तादाद कम होने की वजह से जहां देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सबंधी गंभीर खतरे से जूझ रहा है, वहीं इससे स्वास्थ्य पर्यटन को बढ़ावा देने और इसके जरिए विदेशी मुद्रा कमाने की महात्वकांक्षी और बहुचर्चित मुहिम को भी करारा धक्का लग सकता है.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: ईशा भाटिया

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