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सोचने वाले रोबोट

२७ नवम्बर २०१३

रोबोटों को खुद से सोचना सीखना होगा. पृथ्वी से बाहर जाने वाले रोबोटों के लिए तो यह और भी जरूरी है लेकिन क्या सचमुच यह मुमकिन है कि रोबोट खुद ही सोचे और खुद ही काम करे.

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तस्वीर: DW/F. Schmidt

एक तस्वीर देखिये, रेत के टीले हैं, बजरी और बड़ी चट्टानों के बीच एक खोजी अंतरिक्षयान ऐसे दिख रहा है जैसे वो अभी अभी किसी दूसरे ग्रह पर उतरा हो और उस जगह पर खोजबीन करने के लिए अपने रोबोट भेजने वाला हो. लेकिन यह असल ग्रह नहीं है. जर्मनी के बॉन शहर के पास ही ग्रह जैसा यह कृत्रिम माहौल जर्मन एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस रिसर्च सेंटर (डीएलआर) ने तैयार किया है. जर्मन विश्वविद्यालयों और उद्योग जगत की दस टीमों ने हाल ही में यहां डीएलआर स्पेसबोट कप में हिस्सा लिया. वास्तव में यह उनके लिए अपने बेहतरीन रोबोटों के प्रदर्शन का मौका था. जमीन भले ही नकली हो लेकिन मुकाबले के पीछे विचार बिल्कुल असली है और भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों के लिहाज से अहम भी.

नासा ने मंगल ग्रह पर कई रोवर भेजे हैं. इन रोबोटों से पृथ्वी तक सिग्नल पहुंचने में काफी वक्त लगता है, एक तरफ से करीब 15 मिनट. इसका मतलब है कि जवाब पाने के लिए करीब आधे घंटे इंतजार करना होता है. अगर वैज्ञानिक रोबोट को अंतरिक्ष की और गहराई तक भेज सकें तो संचार और जटिल होगा. ऐसे में वैज्ञानिक अंतरिक्ष में काम करने वाले रोबोटों को ऐसा बनाना चाहते हैं जो खुद से काम कर सकें. इसका मतलब है कृत्रिम बुद्धिमता का इस्तेमाल किया जाए.

SpaceBot Cup 2013 in Rheinbreitbach
लॉरन रोबोटतस्वीर: DW/F. Schmidt

पानी की खोज

मंगल पर भेजे गए असली रोवर की तरह ही स्पेसबोट कप के रोबोट भी पानी ढूंढ रहे हैं. फर्क सिर्फ इतना भर है कि इस नकली ग्रह पर नीले रंग के गिलासों में पानी को चट्टानों के अंदर छिपा दिया गया है. रोबोटों को गिलास ढूंढना है, उसे उठाना है और कहीं और ले कर जाना है. कार्ल्सरुहे इंस्टीट्यूट में एफजेडआई रिसर्च सेंटर फॉर इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी ने छह टांगों वाले लॉरन को बनाया है. इसकी चाल बहुत अच्छी है. इसे बनाने वालों को प्रेरणा भारत में मिलने वाले टिड्डे से मिली. टीम के प्रवक्ता लार्स्र फॉत्सर ने बताया, "पैर बेहद लचीले हैं और सामने के पैरों में हमने पंजे भी लगाए हैं."

लॉरन जब एक पांव से पानी का गिलास पकड़ लेगा तब भी वह अपने बाकी पांच पैरों की मदद से चल लेगा. हालांकि इसके बीच के हिस्से में एक जगह बनाई गई है जहां यह सामान रख कर चलने के लिए सभी पैरों का इस्तेमाल कर सकता है. दिशा के बारे में जानने के लिए यह लेजर स्कैनर का इस्तेमाल करता है. यह घूमता उपकरण रोबोट के सिर पर लगा है जो वातावरण की थ्रीडी तस्वीरें बनाता है.

SpaceBot Cup 2013 in Rheinbreitbach
निम्ब्रो सेन्टॉरोतस्वीर: DW/F. Schmidt

सही कदम का पता लगाना

लॉरन के पास आंखों की एक दूसरी जोड़ी भी है जो किसी गेमिंग कॉन्सोल में लगे कैमरों जैसी हैं. यह वातावरण को पिक्सल के रूप में देखता है और इनका इस्तेमाल कर थ्रीडी तस्वीरों की गणना करता है. रोबोट इन थ्रीडी तस्वीरों के जरिए पता लगाता है कि पानी के गिलास के हिसाब से उसकी स्थिति क्या है. तकनीक गिलास को एक अहम चीज के रूप में पहचानने में मदद करती है.

एक बार जब रोबोट गिलास को पहचान लेता है तो यह तय कर सकता है कि अब आगे क्या करने की जरूरत है, गिलास को पकड़ना और उसे लक्ष्य तक ले जाना. निम्ब्रो सेनटॉरो रोबोट ने बिल्कुल वही किया. छह पहियों वाले इस रोबोट को बॉन यूनिवर्सिटी की टीम ने तैयार किया है. निम्ब्रो सेनटॉरो ने गिलास को ढूंढा और इसे प्लास्टिक के एक बर्तन में रख कर ऊपर से ढक्कन लगा दिया. निम्ब्रो सेनटॉरो ने इस दौरान एक बूंद पानी भी नहीं गिराया. स्पेसबोट कप के दर्शकों को इन रोबोटों के कारनामे देख कर खूब मजा आया.

SpaceBot Cup 2013 in Rheinbreitbach
रोबोटों को सोचना सीखना होगातस्वीर: DW/F. Schmidt

केवल अंतरिक्ष के लिए नहीं

ब्रेमेन की जैकब यूनिवर्सिटी के आंद्रियास बिर्क ने इसी तरह के रोबोटों का इस्तेमाल प्राकृतिक आपदा के समय खतरनाक जगहों पर किया है. उनकी टीम रोबोटों का इस्तेमाल कर अनजान जगहों के उच्च स्तर के नक्शे बनाने की विशेषज्ञ है. जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद वहां का नक्शा इसी टीम ने बनाया था. बिर्क ने बताया, "हमने एक सॉफ्टवेयर बनाया है जो ड्रोन का इस्तेमाल कर 2डी नक्शे बनाता है. हमें अमेरिकी सहयोगियों के मदद मिलती है जो आपदा के बाद तुलनात्मक रूप से बहुत जल्दी से छोटे नक्शे बना लेते हैं."

हालांकि स्पेसबोट कप में उन्होंने एक जमीन पर चलने वाला रोबोट पेश किया. बिर्क ने बताया, "हम यह दिखा सकते हैं कि रोबोट ग्रिपर चीजों को बहुत अच्छे तरीके से पकड़ सकता है और यह उसे सीधा रखता है." वास्तव में ज्यादातर रोबोटों ने गिलास मिलने के बाद बहुत अच्छा काम किया. गिलास को ढूंढना ज्यादा मुश्किल काम था. बिर्क का कहना है, "अकसर ऐसा होता है जिसे हम आसान समझते हैं वह आखिर में सबसे चुनौतिपूर्ण साबित होता है."

रिपोर्टः फाबियान श्मिट/एनआर

संपादनः ओंकार सिंह जनौटी