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अजीबोगरीब फतवों से हैरानी

१३ दिसम्बर २०१३

उत्तर प्रदेश के संभल जिले के 30 मुस्लिम बहुल गांवों के मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने पोलियो उन्मूलन अभियान के बहिष्कार का फतवा जारी किया है. मांग इतनी है कि उनके गांवों को मुरादाबाद जिले में डाला जाए.

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Indien Eid al-Fitr
तस्वीर: Noah Seelam/AFP/Getty Images

साथ ही सलाह दी गई है कि ये लोग राजनीतिक रैलियों में न जाएं और न ही राजनीतिक नेताओं को अपने गांवों में घुसने दें और अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दें. और उनकी मांग क्या है? सिर्फ यह कि इन गांवों को मुरादाबाद जिले में शामिल किया जाए. जिसने भी इस फतवे के बारे में सुना, वह सकते में है क्योंकि स्पष्ट है कि इस फतवे से मुस्लिम समुदाय का ही सबसे अधिक नुकसान होगा.

राजनीतिक रैलियों और नेताओं का बहिष्कार तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन पोलियो का टीका लगवाने और बच्चों को स्कूल भेजने से मना करना सीधे सीधे उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ करना है.

भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में यदि किसी एक उपलब्धि को गिनाया जा सकता है तो वह है पोलियो उन्मूलन में सफलता. उत्तर प्रदेश में पोलियो का आखिरी मामला 21 अप्रैल 2010 को सामने आया. पूरे देश में 13 जनवरी 2011 के बाद से पोलियो की चपेट में एक भी व्यक्ति नहीं आया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत को पोलियोग्रस्त देशों की सूची से हटा चुका है और यदि एक साल और कोई केस दर्ज नहीं हुआ तो उसे पूरी तरह से पोलियो मुक्त देश घोषित किया जा सकता है. यदि पोलियो के टीके के बहिष्कार के इस फतवे के कारण पोलियो का प्रकोप फिर से फैला तो यह उत्तर प्रदेश तक ही नहीं रुकेगा और अन्य राज्य भी इसकी चपेट में आ सकते हैं. फिर यह बीमारी भारत की सीमाओं के बाहर भी फैल सकती है.

इस फतवे ने एक बार फिर मुस्लिम समुदाय पर हावी नेतृत्व के बारे में सवाल खड़े कर दिए हैं. समस्या यह है कि इस्लाम के अधिकांश धर्मग्रंथ अरबी में हैं. आम मुसलमान की इन ग्रंथों तक पहुंच नहीं है और उसे जो मुल्ला मौलवी बताते हैं, उसी पर विश्वास करना पड़ता है. इसी का फायदा उठा कर धार्मिक नेता मनमाने निर्देश जारी करते रहते हैं. मुस्लिम समुदाय का राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसी अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियां भी अपने हित साधने के लिए इन धार्मिक नेताओं की शरण लेती हैं.

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनके परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय के धार्मिक नेतृत्व का प्रभाव बढ़ता गया. इसी दौर में पुनरुत्थानवादियों एवं सुधारवादियों के बीच तनाव भी बढ़ा क्योंकि जहां पुनरुत्थानवादी ब्रिटिश विरोधी थे वहीं सुधारवादी ब्रिटिश समर्थक. 1867 में राशिद अहमद गंगोही और मुहम्मद कासिम नानौटवी ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना की. ये दोनों ही 1857 के स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे. उधर 1864 में सैयद अहमद ने अभिजात मुस्लिम वर्ग के बीच पश्चिमी शिक्षा के लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से एक वैज्ञानिक सभा का गठन किया. 1870 में उर्दू पत्रिका 'तहजीब अल अखलाक' शुरू की और 1875 में अलीगढ़ एंग्लो मुहम्मडन ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की जो बाद में चल कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना. जहां सैयद अहमद की इस्लाम की व्याख्या में मुक्त चिंतन (इज्तेहाद) पर बल दिया गया था वहीं दारुल उलूम में उसके लिए कोई जगह नहीं थी और वहां परंपरा का सबसे अधिक महत्व था.

लेकिन इस संदर्भ में यह बात भी ध्यान देने लायक है कि अलीगढ़ में भी धार्मिक विषयों की कक्षाओं में पुरातनपंथी और दकियानूसी शिक्षक ही पढ़ाते थे. बाद में खिलाफत आंदोलन के कारण मुस्लिम समुदाय के धार्मिक नेतृत्व का राजनीतिक रुतबा भी बढ़ा. दूसरी ओर अलीगढ़ पृथकतावादी विचारधारा का केंद्र बन गया और पाकिस्तान आंदोलन को वहीं से बल मिला. इसका एक नतीजा यह हुआ कि सैयद अहमद के इस्लाम संबंधी आधुनिक विचार नहीं पनप पाए और पुरातनपंथी एवं पुनरुत्थानवादी उलेमाओं का प्रभाव बढ़ता गया.

यही कारण है कि आज भी मुस्लिम नेतृत्व मुसलमानों की बुनियादी समस्याओं गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण और सामाजिक पिछड़ेपन को उठाने के बजाय अकसर उर्दू, मुस्लिम पर्सनल लॉ और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र जैसे भावनात्मक मुद्दों पर ही आंदोलित है. 'इस्लाम खतरे में है' का भावनात्मक नारा देकर लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़काना उसे एक आसान तरीका लगता है. संभल के धार्मिक नेताओं के फतवे एक बार फिर इस कड़वी सचाई को सामने लाते हैं.

ब्लॉगः कुलदीप कुमार

संपादनः ए जमाल