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इस समाज में कला बहुत है

३० दिसम्बर २०१३

कला और संस्कृति के खाते में 2013 में देश के भीतर कुछ रौनकें हुईं कुछ हैरानियां. कुछ रिकॉर्ड टूटे कुछ भरोसे. कुछ किले ढहे तो कुछ प्रतिष्ठाएं. कुछ अवांछनीय घटा और कला, संगीत, साहित्य और मीडिया, जन और मन से कुछ और दूर हुआ.

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तस्वीर: imago/imagebroker

गुजिश्ता सालों में तैयब मेहता और साल जाते जाते वीएस गायतोंडे. दोनों कला महारथियों की पेंटिग्स की रिकॉर्ड बोली लगी. कला जगत में सहसा नई आस जगी. प्रगतिशील कला आंदोलन के सूरमा हुसैन, रजा, सूजा, तैयब और गायतोंडे जैसे दिग्गजों की याद ताजा रखने का बंदोबस्त करते हैं अंतरराष्ट्रीय नीलामीघर जहां बेतहाशा ऊंची कीमतों में इनकी कृतियां बिक जाती हैं. 2013 में इस ट्रेंड में और उछाल आया. पहली बार देश में बोली लगाने आई क्रिस्टीज ने साल के आखिरी महीने में गायतोंडे की पेंटिग को अचानक एक नई ऊंचाई मुहैया करा दी. हमारे समय के महत्वपूर्ण कलाकार गायतोंडे का जब निधन हुआ, तो कहते हैं उनकी अंतिम यात्रा में महज गिनती के लोग जुटे थे. बाजार के ही हवाले से अंत में उन्हें याद किया गया और वो भी मृत्यु के बाद.

2013 में भारतीय कला एक तरह से अपनी प्रस्तुति में भले ही उन्मुक्त हुई हो लेकिन सरोकारों और प्रतिरोधों में लॉक ही रही. संस्कृति का नजारा भी कमोबेश ऐसा ही था. सरगर्मी चहलकदमी और सनसनी खूब लेकिन अपनी भव्यताओं और विवादों में ही भटकी हुई, वहीं घूमती और घिरती हुई.

Indien Ausstelung Kunst auf LKWs in Kalkutta
तस्वीर: DW/S. Bandyopadhyay

संस्कृति के ही एक आयाम, साहित्य में और उसमें भी हिन्दी में देखें तो वहां फेसबुक और ऑनलाइन विवाद, धक्कामुक्की, अफवाहें ही बनी रहीं. कुछ दिग्गज नहीं रहे, जैसे विजयदान देथा, राजेंद्र यादव, ओमप्रकाश वाल्मीकि. साहित्य का विमर्श फेसबुक के हवाले से आता जाता रहा. हिन्दी को उसके ही लोगों ने और घेरा. ट्विटर और फेसबुक ऑनलाइन खुराफातियों के प्लेटफॉर्म बने. साइबर हिंदुओं का 2013 में कोहराम और कोलाहल सघन और सुनियोजित हुआ. एक भयानक भाषा संस्कृति हमें नए माध्यमों में देखने को मिली.

सिनेमा में अगर बॉलीवुड को देखें तो वहां 200-300 करोड़ के बिजनेस पर भी सूरमाओं का ध्यान अटका भटका रहा. सिनेमा अपनी प्रस्तुति में हैरतअंगेज हुआ लेकिन अपने सरोकार में और अपनी भाषा में और सिकुड़ गया. तसल्ली इतनी है कि 2013 ने वैकल्पिक सिनेमा के लिए नए दरवाजे भी खोले. छोटे बजट की, अनजाने चेहरों के साथ बनाई फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस कहे जाने वाले सफलता के गणित में भी उलटफेर किए. छोटे शहरों के जीवन पर फिल्में खूब बनीं हालांकि इनमें से ज्यादातर फिल्में इन शहरों में न जाने किन विद्रूपों और हिंसाओं और अश्लीलताओं पर ही जाकर ढेर हो गईं.

Deepika Padukone Schauspielerin aus Indien
तस्वीर: DW/P. M. Tewari

मसाला फिल्मों से दूर साधारण मनुष्य की मासूम आकांक्षाओं और उलझी हुई लड़ाइयों को पर्दे पर अपने किरदार से जीवंत करने वाले फारुख शेख नए साल से चार रोज पहले दुनिया से विदा हुए. उन्होंने दुबई में दम तोड़ा. वो हिंदी में नए सिनेमा के शुरुआती नायकों में थे. फिल्म और उसके बाहर आम जीवन की संस्कृति में जेनुइन इंसान थे. एक बौद्धिक फकीर. 2013 में इस दुनिया से अलविदा हुई शख्सियतों में प्राण, शमशाद बेगम और मन्ना डे भी थे.

दीपिका पादुकोण ने 2013 में चार हिट फिल्में दीं और उन्हें अब पुरस्कारों का इंतजार है और इंतजार इस बात का भी कि क्या वो करीब 60 साल पहले का अपने समय की महान अदाकारा मीना कुमारी का रिकॉर्ड तोड़ पाएंगी या नहीं. साल जाते जाते अमिताभ बच्चन ने भी हैरान किया. वो मनसे के मंच पर हंसते मुस्कराते प्रकट हुए. 2013 में लता मंगेशकर ने भी अपनी चाहत जाहिर कर दी कि मोदी पीएम हो जाएं.

मीडिया संस्कृति की दुनिया पर भी कुछ घटनाएं गाज की तरह गिरीं. सबसे बड़ा धमाका तो तहलका कांड से हुआ. उसके सांस्कृतिक विमर्श के आयोजन थिंकफेस्ट में संपादक तेजपाल की यौन हरकत से उनके प्रशंसक स्तब्ध और शर्मिंदा रह गए. शिष्टाचार की संस्कृति और स्त्री सम्मान पर नई बहस छिड़ी. कानून की परख का मौका आया. स्त्री अधिकारों का शोर उठा. इन अधिकारों की लड़ाई की हिस्टॉरिक तफसील को तोड़ने मरोड़ने की कोशिशें हुईं.

Literaturfestival Jaipur Indien 2013 Besucher Shashi Tharoor Tarun Tejpal
तस्वीर: Jasvinder Sehgal

इससे पहले जयपुर में इसी तरह के एक फेस्ट में भी विमर्श विमर्श का खेल हुआ. सबने कला संस्कृति समाज की मुसीबतों का रोना रोया लेकिन कोई उस लहराती दिव्यता से उठकर वहां नहीं गया जिनके बारे में चिंतन था. संस्कृति के ऐसे आयोजन कॉरपोरेट के हवाले से बने, बिगड़े और चूर होकर ढेर हुए.

2013 में इस तरह हमने देखा कि संस्कृति कैसे झपटती हुई मास मीडिया से निकलती है और कितनी तीव्रता से उसी में समा जाती है. बाकी लोगों को हैरान परेशान और व्याकुल बना कर. ये मध्यवर्ग और नए अमीरों की संस्कृति है. और जो किनारे के लोग हैं, वंचित शोषित उत्पीड़ित विस्थापित जनसमुदाय, उनकी संस्कृति में संघर्ष ही रहता आता था, सो 2013 में भी वो जारी रहा. अपनी अपनी तकलीफों, अपनी अपनी उलझनों और अपने अपने सपनों के साथ वे 2014 में जाते दिखते हैं. भेस बदल बदल कर कलाएं भी चक्कर काट ही रही हैं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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