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अदालती फैसले में धार्मिक दुहाई

७ जनवरी २०१४

दुनिया में धर्म और परंपराओं के सम्मान के बावजूद धार्मिक शिक्षाएं कानून का सहारा नहीं बनतीं. मगर यौन हिंसा से परेशान भारत में अदालतों को नैतिकता और मर्यादा की दुहाई देकर धार्मिक दलीलों को फैसले का आधार बनाना पड़ रहा है.

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Oberstes Gericht Delhi Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

धर्मनिरपेक्ष कानून की नजर में धर्म निहायत ही निजी मामला होता है. इसीलिए पर्सनल लॉ के अलावा किसी अन्य प्रकार के कानूनों में इसका महत्व नहीं है. मगर अशिक्षा के बीच आधुनिकता की आंधी के कारण यौन हिंसा का चढ़ता ग्राफ भारतीय अदालतों को लीक से हटकर फैसले देने पर मजबूर कर रहा है.

हाल ही में दिल्ली की एक अदालत ने शादी से पहले सेक्स को अनैतिक बताते हुए धर्मविरोधी करार दिया है. परंपरावादियों के लिए यह फैसला भले ही बेहतर हो लेकिन सेक्स को नैतिकता के बजाए निजता से जोड़ कर देखने वालों को फैसला मान्य नहीं है. आधुनिकता की बयार में बह रहे लोगों का मानना है कि इस तरह के फैसले यौन हिंसा को रोकने में कामयाब कतई नहीं होंगे.

नैतिक या अनैतिक

दरअसल मामला शादी से पहले सेक्स को नैतिक या अनैतिक मानने का नहीं, बल्कि शादी का वादा कर सेक्स संबंध बनाने को लेकर है. यह भी सही है कि अदालतों के सामने यह सवाल पहली बार नहीं उठा है कि शादी का वादा कर यौन संबंध कायम करने को बलात्कार माना जाए या नहीं. इसे लेकर अदालतों की वाद विशेष के तथ्य एवं परिस्थितियों के आधार पर अलग अलग राय रही है.

मगर मौजूदा मामले में पहली बार अदालत ने धर्म को आधार मानते हुए शादी का वादा तोड़ने वाले आरोपी को बरी कर दिया. अदालत ने कहा कि दुनिया के सारे धर्म शादी से पहले सेक्स को अनैतिक मानते हुए इसकी इजाजत नहीं देते. भले ही सेक्स से पहले शादी का वादा क्यों न किया गया हो. सुनने में थोड़ा अजीब भले ही लगे मगर मामले के तथ्य एवं परिस्थितियों को देखते हुए अदालत का फैसला दलीलों की कसौटी पर खरा उतरता है. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेन्द्र भट्ट ने दो टूक कहा कि शादी का वादा तोड़ने वाले युवक को बलात्कारी नहीं माना जा सकता है. खास कर मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े ओहदे पर कार्यरत 29 साल की लड़की से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह शादी के वादे पर यकीन कर युवक को रिश्ते बनाने की रजामंदी दे दे.

धर्म रोकता है

इस मामले में लड़की ने साथी युवक के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज करा दिया. उसका कहना था कि युवक ने उससे शादी करने का वादा कर कई बार शारीरिक संबंध बनाए. मगर बाद में वह मुकर गया. अदालत ने उसकी दलील को नकारते हुए कहा कि ऐसी शिक्षित महिला शादी से पहले किसी के साथ यौन संबंध कायम करने का फैसला अपने जोखिम पर करती है. कानून की नजर में ऐसी महिला अपने फैसले के फायदे और नुकसान से वाकिफ होती है. वैसे भी दुनिया का हर धर्म शादी से पहले सेक्स को अनैतिक मानता है और कम से कम एक शिक्षित महिला से ऐसे सामान्य नियमों से अनजान होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है.

धर्म और नैतिकता को आधार बनाने वाले इस फैसले पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बीच दिल्ली हाई कोर्ट का 4 साल पुराना एक फैसला प्रासंगिक हो उठा. जस्टिस कैलाश गंभीर ने इसी तरह के मामले को कानून की परिधि में ही रहकर अंजाम तक पहुंचाया था. शादी का वादा कर शारीरिक संबंध बनाने वाले युवक को बलात्कार का दोषी ठहराने वाले निचली अदालत के फैसले को हाई कोर्ट ने पलटते हुए युवक को आरोप मुक्त कर दिया. अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में निचली अदालतें युवकों को जल्दीबाजी में बलात्कार का दोषी ठहराने से बचें. जस्टिस गंभीर ने कहा कि कानून की सामान्य जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी बता सकता है कि शादी का वादा तोड़ना आईपीसी की धारा 405 के तहत आपराधिक विश्वासभंग का मामला तो हो सकता है मगर बलात्कार से जुड़ी धारा 376 के तहत मामला कतई नहीं बनता है.

वादाखिलाफी से बचें

उपर्युक्त दोनों फैसले अपने अपने दायरे में सीमित हैं. इनके फायदे और नुकसान दोनों पहलुओं पर गौर करते हुए हाई कोर्ट के पूर्व जज एसएन ढींगरा कहते हैं कि धार्मिक दीवार समाज को अराजकता से बचाती है और यही मकसद कानून का भी है. इसलिए आपराधिक मामलों में धर्म की दरकार हो सकती है. मगर महिलाओं के खिलाफ लगातार बढ़ती यौन हिंसा की हकीकत को देखते हुए आरोपियों को बरी करने के बजाय अपराध की कोटि और सीमा तय करते हुए फैसले करने होंगे. भले ही आरोपियों को वादाखिलाफी का ही दोषी क्यों न ठहराया जाए. जिससे भटके नौजवान ऐसी वादाखिलाफी करने से बचें. अगर ऐसा नहीं होता है तो निसंदेह कानून अपने मकसद से पराजित हो जाएगा.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः अनवर जे अशरफ

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