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दर्द में डूबा विधवाओं का गांव

Anwar Jamal Ashraf९ जनवरी २०१४

धनिता देवी हिमालय की तराई में एक दूर दराज गांव में अपने छोटे से बच्चे के साथ जीवन का संघर्ष कर रही हैं. पिछले साल जब बाढ़ आई थी, तो हजारों लोगों के साथ धनिता के पति को भी लील गई थी.

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तस्वीर: DW/M. Krishnan

22 साल की धनिता अकेली रह गई. आमदनी का जरिया नहीं कि तीन बच्चों का पेट भर सके. ऊपर से बूढ़ी सास भी साथ रही है. धनिता के पास अगर कुछ बचा है, तो सिर्फ हौसला. वह कहती है कि परिवार को अवसाद से बचाने के लिए वह कुछ भी करेगी, "मैंने पहले कभी काम नहीं किया है. मेरे पति काम करते थे. लेकिन अगर वे हमारी देखभाल के लिए यहां नहीं हैं, तो मुझे ही परिवार के लिए कुछ करना होगा." उसके पति के पास एक छोटा सा ढाबा था.

पिछले साल जून में जब भयानक बाढ़ आई तो देवली गांव पूरी तरह बर्बाद हो गया. करीब 6000 लोगों की जान गई. इसके बाद ज्यादा ध्यान हिन्दू तीर्थों पर गया और उन लोगों पर नहीं, जिनकी रोजी रोटी भी केदारनाथ जैसे तीर्थों के भरोसे चलती थी. देवी के गांव में उस जैसी 34 औरतें हैं, जिन्हें पता है कि उनके मर्द और बेटे अब कभी नहीं आएंगे. ये लोग केदारनाथ में काम करते थे. धनिता के देवली भनीग्राम को अब "विधवाओं का गांव" कहा जाता है.

धनिता जैसी औरतों को एक गैरसरकारी संगठन मदद कर रहा है. दिसंबर से उन्हें सिलाई, कढ़ाई और मोमबत्ती बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही है. उन्हें कंप्यूटरों की भी शिक्षा मिल रही है. धनिता का कहना है, "मैं सिलाई सीखूंगी, सीखूंगी कि कैसे इससे घर चलाना है. मेरे बच्चों का भविष्य अब मेरे हाथ में है."

पाठक की पहल

इस गैरसरकारी संगठन के संस्थापक सुलभ शौचालय से मशहूर हुए बिन्देश्वर पाठक हैं. उन्होंने अगस्त में इस गांव को "गोद ले लिया" और यहां की महिलाओं को हर महीने 2000 रुपये तथा बच्चों को 1500 रुपये दिया जाता है. इस पैसे का स्वागत किया जाता है लेकिन रकम उससे बहुत कम है, जो यहां के मर्द कमाया करते थे. पाठक का कहना है कि यह तो पहला कदम है, उनका मकसद यहां की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना है.

सर्दियों में बर्फ से घिरे देवली गांव में जब आम तौर पर शांति रहती है तो 22 चमकीली सिलाई मशीनों की आवाज गूंजती है. दर्जन भर कंप्यूटर चलते हैं और कौतूहल बना रहता है. महिलाओं का कहना है कि वे नया काम सीखने को तैयार हैं लेकिन अपनों को गंवाने का गम पीछा नहीं छोड़ता. दो बच्चों की मां 32 साल की बिनीता देवी शुक्ला अपने पैरों को सिलाई मशीन के पैडल के लिए अभ्यस्त कर रही हैं. उनका रुंधा गला बताता है कि काम में मन लगाना कितना मुश्किल है, "मैं सिर्फ रोती और सोती हूं. मेरे पास कुछ और करने की ऊर्जा नहीं है. मैं इस उम्र में कुछ और कैसे सीखूं और उससे कमाई करूं."

कई चुनौतियां

महिलाओं के सामने एक और चुनौती उनकी बेटियों की है. भारत के किसी भी दूसरे गांव की तरह यहां भी बच्चियों के पैदा होते ही उनकी शादी की चिंता सताने लगती है. इन औरतों को डर है कि कम पैसों के साथ वे बच्चियों की शादी नहीं कर पाएंगी. अपने पति और बेटे को खो चुकी बिजिया देवी कहती हैं, "सिलाई करने या मोमबत्ती बनाने से मैं कितना कमा लूंगी और इन चंद सौ रुपयों के साथ उससे कौन शादी करेगा."

पाठक की योजना है कि एक मार्केटिंग एक्सपर्ट यहां के उत्पादों के लिए काम करे और दूसरे शहरों के कारोबारियों को यहां के सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया जा सके. लेकिन वह मानते हैं कि अगर काम चल भी निकला, तो औरतों को बहुत ज्यादा मुनाफा नहीं होगा.

केदारनाथ का मुख्य मंदिर दोबारा तैयार हो गया है लेकिन आस पास के चार गांवों में पुनर्निर्माण धीमी गति से चल रहा है. यहां की इमारतें ध्वस्त हो गईं और सड़कें बह गईं. केंद्र और राज्य सरकारें वित्तीय मदद दे रही हैं. लेकिन बिजली, पानी और दूसरी जरूरतें अभी तक पूरी तरह मुहैया नहीं कराई जा सकी हैं.

कई लोगों को इस बात की चिंता है कि क्या इस इलाके का पुराना रसूख लौटेगा और क्या पर्यटक लौटेंगे. इन लोगों का कारोबार और घर उन्हीं पर्यटकों के भरोसे है. सरला पुरोहित सरकारों से नाराज हैं, "हम कुछ और नहीं कर रहे हैं. सरकार ने हम जैसे बूढ़े लोगों को नजरअंदाज कर दिया है. गैरसरकारी संगठनों ने भी." सिर्फ 65 साल की पुरोहित ने निराशा से कहा, "क्या वे चाहते हैं कि मैं बैठ कर अपने बचे हुए दिन गिनूं."

एजेए/एमजे (एएफपी)

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