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डेढ़ इश्किया के गाने पर विवाद

११ जनवरी २०१४

नसीरुद्दीन शाह की डेढ़ इश्किया की तो तारीफ हो रही है, लेकिन उसका प्रीमियर उत्तर प्रदेश सरकार के विवादों की भेंट चढ़ गया. विवाद फिल्म के लोकप्रिय गाने पर भी है जिसे गुलजार ने लिखा है.

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तस्वीर: DW/S. Waheed

गुलजार ने फिर वही किया, यानि मुखड़ा कहीं और से उठा लिया और फिर अपना गीत लिख दिया. माधुरी दीक्षित की नई फिल्म डेढ़ इश्किया के एक गाने पर एक बार फिर यही आरोप लगे.

"हमरी अटरिया पे" बोल वाले गीत का मुखड़ा उस प्रसिद्ध दादरे का है जिस पर बेगम अख्तर, शोभा गुर्टू और शुजात खान जैसे प्रतिष्ठित शास्त्रीय कलाकार कार्यक्रम कर चुके हैं. गुलजार से पहले गीतकार प्रसून जोशी फिल्म सत्याग्रह में इस दादरे के इसी मुखड़े को इस्तेमाल कर चुके हैं.

क्या है असली मुखड़ा

Shooting Bollywood Movie in Indien
तस्वीर: DW

यह प्रसिद्ध दादरा इस प्रकार है, "हमरी अटरिया पे आओ संवरिया, देखा देखी बलम होई जाए..." गुलजार ने इसके पूरे मुखड़े को डेढ़ इश्किया फिल्म में इस तरह पिरो दिया है, "सज के सजाएं बैठी, सांस में बुलाए बैठी, कहां गुम हुआ अनजाना, अरे अरे दिए रे जलाए रे जलाए, ना अटरिया पे आया परवाना".

करीब तीन साल पहले जब इश्किया फिल्म में गुलजार के लोकप्रिय गीत "इब्ने बतूता, बगल में जूता" पर विवाद हुआ और हिन्दी के दर्जनों साहित्यकारों ने एक स्वर से गुलजार की आलोचना की कि हिन्दी के विख्यात कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता चुरा कर उन्होंने यह गीत लिख दिया, तो गुलजार ने कोई जवाब नहीं दिया. लेकिन अंग्रेजी के एक शीर्ष दैनिक अखबार को अपने गीत और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की स्क्रिप्ट भेज दी. सक्सेना की कविता "इब्ने बतूता, पहन के जूता" से शुरू होती है, जबकि गुलजार का गीत "इब्ने बतूता, बगल में जूता" से शुरू होता है. "आंधी" फिल्म के लोकप्रिय गीत "दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन" की पहली दो पंक्तियां गालिब का मशहूर शेर "जी ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन" है. यश चोपड़ा की आखिरी फिल्म "जब तक है जान" का लोकप्रिय गीत "चल्ला की लब दा फिरे" पाकिस्तान के पंजाब का मशहूर लोकगीत है, जिसके मुखड़े को लेकर गुलजार ने अपने नाम से गीत लिखा है.

पत्ता पत्ता, बूटा बूटा

गुलजार ऐसा क्यों करते हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में उर्दू साहित्य के प्रोफेसर मजहर अहमद कहते हैं कि गालिब के शेर का एक शब्द बदल देना "तहरीफ" की श्रेणी में आता है. यह चोरी नहीं. फिल्मों में तो यह होता आया है. फैज अहमद फैज के कविता संग्रह "दस्ते सबा" की उनकी एक नज्म की पंक्ति है "तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है.." इसे लेकर मजरूह सुलतानपुरी ने फिल्म "चिराग" में पूरा गीत लिख दिया. इसी तरह मशहूर उर्दू शायर मीर तकी मीर के शेर "पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है.." को मजरूह ने अपने गीत के ऊपर लगा कर "एक नज़र" फिल्म में पूरा गीत अपने नाम से शामिल कर दिया. प्रोफेसर मजहर के मुताबिक इस तरह के जोड़ को साहित्यक भाषा में इक्तिबास करना कहते हैं. यही गुलज़ार भी कर रहे हैं.

Indien Film Kino Dedh Ishiya Schauspielerin Madhuri
तस्वीर: DW/S. Waheed

लेकिन फिल्म में यह ठीक नहीं. प्रोफसर मजहर कहते हैं कि फिल्म का गीत व्यवसायिक मामला है. किसी शायर की पंक्तियां लेकर उसी थीम पर पूरा गीत लिखना एक प्रकार की चोरी तो है ही. हाल ही में आई फिल्म "बात बन गई" के प्रोड्यूसर सैयद आसिफ जाह भी इससे सहमत हैं. कहते हैं कि ईमानदारी तो यह होती कि गुलजार या मजरूह इस तरह के गीतों में अपने साथ उस शायर का नाम भी सह कवि के रूप में जुड़वाते. इससे उनका नाम भी होता और कॉपी राइट एक्ट के तहत उन शायरों के परिजनों को कुछ पैसे भी मिलते. बनारस घराने से जुड़े रहे संगीत के जानकार विजय राय कहते हैं, "बेहद उच्चकोटि की रचनाओं के मनमाने इस्तेमाल को रोकने की कोशिश जरूर होनी चाहिए."

शास्त्रीय गायक पंडित अजय पोहनकर का मानना है कि अगर "किसी पुरानी चीज को उठाया जा रहा है तो उसे या तो इतना नया कर दिया जाए कि वह एक अलग चीज बन जाए. यदि ऐसा नहीं है और पुरानी चीज की लोकप्रियता का महज फायदा लेना है तो उन्हें भी श्रेय दिया जाना चाहिए जो मूल रचनाकार हैं." उर्दू शायर आमिर रियाज कहते हैं कि फिल्मों में "सब कुछ पैसे से तौला" जाता है. गुलजार को ऐसे कथित अपने गीतों की रॉयल्टी से कुछ हिस्सा उन शायरों के घरवालों को जरूर देना चाहिए जिनके मुखड़ों के बहाने उन्होंने पूरे पूरे गीत लिख डाले.

रिपोर्टः सुहेल वहीद, लखनऊ

संपादनः अनवर जे अशरफ

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