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रोजमर्रा के सवालों पर नाटक

१८ जनवरी २०१४

अरविंद गौड़ ने किसी नाट्य विद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया लेकिन वह पिछले दो दशकों में उभरकर सामने आने वाले निदेशकों में अग्रणी माने जाते हैं.

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अरविंद गौड़
तस्वीर: DW/K. Kumar

एक ऐसे समय में जब यह धारणा आम हो चुकी थी कि नाटक के दर्शक कम होते जा रहे हैं, अरविंद गौड़ ने अपना नाट्य दल ‘अस्मिता' बनाया और लगातार नाटकों की प्रस्तुतियां करके इस धारणा को निर्णायक ढंग से ध्वस्त किया. वह न केवल रंगमंच पर नाटक खेलते हैं बल्कि जनता के जीवन से जुड़े सवालों पर नए नाटक लिखकर उन्हें आम लोगों के बीच नुक्कड़ नाटकों के रूप में प्रस्तुत भी करते हैं. आज उनकी गिनती देश के व्यस्ततम रंगकर्मियों में की जाती है और वह अब तक साठ नाटकों का मंचन कर चुके हैं. अर्मेनिया और रूस में हुए अंतर्राष्ट्रीय रंग महोत्सवों में उन्हें पुरस्कृत किया जा चुका है और भारत में भी ‘कर्मवीर सम्मान' जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कार उनके हिस्से में आए हैं. स्वभाव से सरल और हंसकर कठिनाइयों को झेल जाने वाले अरविंद गौड़ के साथ रिहर्सलों के बीच हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश:

रंगमंच के प्रति आपकी रुचि कब और कैसे पैदा हुई?

स्कूल में कुछ नाटकों में भाग लिया था. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में नाटक होते थे. उन्हें देखना, फिर उनमें भाग लेना शुरू किया, देशी-विदेशी नाटक पढ़ने और दिल्ली में होने वाले नाटक देखने शुरू किए. फिर अपना छोटा-सा ग्रुप बनाया और नाटक खेलना शुरू किया. उस समय दिल्ली में ‘जन नाट्य मंच' और ‘निशांत' जैसे ग्रुप नुक्कड़ नाटक किया करते थे. ‘जन नाट्य मंच' तो रंगमंच पर भी नाटक खेलता था. मैंने इनके साथ काम किया. इसी दौरान मैं मजदूर संगठनों के साथ जुड़ा और वजीराबाद के मजदूरों के नाट्य ग्रुप "विहान" और एक दूसरे ग्रुप "परिधि" के साथ अनेक नुक्कड़ नाटक किए, जिंदगी को समझना शुरू किया. इसी बीच मैंने एलेक्ट्रोनिक कम्यूनिकेशन में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए दाखिला लिया लेकिन छह सेमेस्टर के बाद छोड़ दिया. चार वर्ष मैंने हिन्दी दैनिक ‘नवभारत टाइम्स' के सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में काम किया और इस बीच खूब नाटक देखे और किए. इस तरह 1983 से 1990 तक का समय मेरे जीवन को जानने और रंगकर्म को सीखने का रहा. इसके बाद दो साल पीटीआई टीवी में भी काम किया.

तभी मेरा हबीब तनवीर से परिचय हुआ और मैं उनकी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिबद्धता, उनके भारत की जमीन और संस्कृति की जड़ों से जुड़े थियेटर और उसमें आधुनिक नाट्य तकनीक के प्रयोग से बहुत प्रभावित हुआ और मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा. मैंने बच्चों के साथ स्कूलों और स्लमों में नाटक और वर्कशॉप भी करने शुरू किए. 1993 में मैंने अपना ग्रुप ‘अस्मिता' बनाया और सबसे पहले भीष्म साहनी का नाटक ‘हानूश' किया. तब से यह यात्रा जारी है.

अरविंद गौड़
अरविंद गौड़तस्वीर: DW/K. Kumar

इस यात्रा के अपने अनुभव बताइये.

हमारे पास साधन नहीं थे और दोस्तों के साथ मिलकर ग्रुप बनाया था. पहले नाटक के मंचन के पहले दिन ही एक अभिनेता छोड़ गया क्योंकि वह पैसे चाहता था जो हमारे पास थे नहीं. तब मैं समझ गया कि प्रशिक्षित अभिनेताओं के साथ मैं काम नहीं कर पाऊंगा क्योंकि स्वाभाविक है कि उन्हें धन की जरूरत होगी. इसलिए मैंने खुद ही एकदम नए लोगों को अभिनय का प्रशिक्षण देना शुरू किया और प्रशिक्षण के दौरान ही उनसे नाटकों में काम भी कराया. पिछले इक्कीस सालों में मैं अभिनेताओं की चार-पांच पीढ़ियां तो तैयार कर ही चुका हूं. हमने वित्तीय संकट और साधनों की कमी झेलना बेहतर समझा, बनिस्बत सरकारी अनुदान लेने के. हमने आज तक सरकार से एक पैसा भी नहीं लिया है जबकि थियेटर के लिए इस समय केंद्र सरकार का संस्कृति मंत्रालय और दिल्ली सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं. हम दिल्ली में जगह-जगह और देश के अन्य शहरों, कस्बों और गांवों में जा-जाकर नाटक करते हैं और इस तरह हजारों लोगों तक पहुंचते हैं.

जिस समय आपने नाटक करना शुरू किया था, तब उसके दर्शक बहुत कम रह गए थे. आपकी यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि आपने रंगमंच के नए दर्शक पैदा किए.

उस समय टीवी अपने उभार पर था और रंगमंच के प्रशिक्षित अभिनेता फिल्म और टीवी की ओर जा रहे थे. मैं भी नया था और मेरे साथ के अभिनेता भी नए थे. हम जनता की रोजमर्रा जिंदगी से जुड़े सवालों और समस्याओं पर नाटक लिखते और करते थे. जाति, धर्म, सांप्रदायिकता, बेरोजगारी, इन सभी पर हमने नाटक किए. इस कारण हमारे नुक्कड़ और मंचीय नाटकों, दोनों को देखने नए दर्शक आए. फिर हमने गिरीश कर्नाड और भीष्म साहनी जैसे प्रतिष्ठित नाटककारों के साथ-साथ महेश दत्तानी जैसे नए नाटककारों के नाटक भी किए, मसलन उनका “फाइनल सोल्यूशन”. इससे भी दर्शक आकृष्ट हुए.

नाटकों पर भी सरकारी अंकुश है क्या?

बिलकुल है. हमारे कई नाटकों पर प्रतिबंध लग चुका है. 2005 में दिल्ली में हमारा नाटक 'मिस्टर जिन्ना' बैन हुआ और उसके बाद डेढ़ साल तक हमें नाटक करने के लिए कोई हॉल नहीं मिल पाया. डेरियल फो के नाटक 'एक्सीडेंटल डेथ' पर आधारित नाटक 'ऑपरेशन थ्री स्टार' गुजरात में मंचित नहीं हो पाया. दत्तानी के नाटक 'फाइनल सोल्यूशन' की स्क्रिप्ट को अहमदाबाद में बहुत काटा-छांटा गया. इसके बावजूद हम नाटक कर रहे हैं और दर्शकों पर ही निर्भर हैं. हमारे खर्च का साठ प्रतिशत दर्शकों से आता है और बाकी चालीस प्रतिशत हम वर्कशॉप आदि करके इकट्ठा करते हैं. हमारे अभिनेता भी युवा है और दर्शक भी क्योंकि हम स्कूलों-कॉलेजों में बहुत शोज करते हैं.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

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