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पिछड़ा बनने की होड़

२१ जनवरी २०१४

जैन संप्रदाय को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा मिलने में लगे सौ साल बताते हैं कि भारत में कागजों पर लोकतंत्र भले ही आ गया हो लेकिन जमीन पर आने में अभी भी वक्त लगेगा.

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तस्वीर: DW/A. Chatterjee

भारत सरकार के इस फैसले से एक बार फिर यह साबित हुआ है कि देश में ओछी सियासत की जड़ें कितनी गहरी हैं. फैसले की घड़ी इस बात की ताकीद करती है कि सरकारों का हर फैसला राजनीति से ही प्रेरित होता है. भले ही मुद्दा निपट गैरसियासी क्यों न हो. ब्रिटिश हुकूमत के खत्म हो जाने के बाद अपनी सरकारों ने भी सहिष्णुता का संदेश देने वाले जैन संप्रदाय के धैर्य का जमकर इम्तिहान लिया है, लेकिन यह भी साफ हो गया है कि छह दशक की आजादी के बाद भी मांगें बदली नहीं हैं.

रोचक इतिहास

बीसवीं सदी के प्रारंभ में जब मुंबई के सेठ माणिक चंद हीराचंद ने ब्रिटिश हुकूमत के समक्ष जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की थी तो उस वक्त उन्हें इसके पूरा होने की राह आसान न होने का अंदाजा तो होगा लेकिन इसमें सौ से अधिक साल लग जाएंगे इसका गुमान कतई नहीं होगा. इतना ही नहीं तब जबकि 1909 में अखिल भारतीय जैन दिगंबर महासभा की इस मांग को तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो ने सैद्धांतिक तौर पर सही मानते हुए इस पर विचार करने की मंजूरी भी दे दी थी. उस समय इस मांग का मकसद नवगठित विधायिका में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए आरक्षित सीटों पर अपना प्रतिनिधित्व कायम करना था. लेकिन उस समय भी विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा यह मांग उठाने के बाद सरकार ने प्रभावशाली समुदायों को अपने पक्ष में करने के लिए जैन समुदाय की मांग को ठंडे बस्ते में डाल दिया.

आजादी के समय मार्च 1947 में संविधान सभा के समक्ष जैन समुदाय को अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय का दर्जा देने की मांग जोर शोर से उठी. एक बार फिर मुस्लिम और सिख समुदायों की मुखर आवाज के सामने जैन समुदाय का स्वर मंद साबित हुआ. संसद से निराश हो कर समुदाय ने अदालतों का रुख किया. लगभग आधी सदी के इंतजार के बाद राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने 1993 में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और संविधान के अनुच्छेद 25 दो का हवाला देकर जैन संप्रदाय को पृथक धर्म बताते हुए जनसंख्या में इनकी भागीदारी के आधार पर इन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश भी कर दी.

इस बीच वर्ष 2005 में सुप्रीम कोर्ट में इस बाबत दायर याचिका में की गई इस मांग को अदालत ने आयोग की सिफारिश के आधार पर जायज बताया. लेकिन याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि यह काम सरकार का है अदालत का नहीं. इस बीच हर फैसला राजनीति से प्रेरित होने की बात को सच साबित करते हुए तमाम सरकारों ने माकूल वक्त के इंतजार में यह फैसला लेने में 20 साल लगा दिए.

मौजूदा स्थिति

केन्द्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन बीते चार साल से इस मांग को पूरा करवाने के लिए राजनीतिक स्तर पर प्रयास कर रहे थे. शैक्षिक और आर्थिक आधार पर मजबूत माने गए लगभग 70 लाख जैनियों का उन्हें हर तरह से सहयोग मिल रहा था. चुनाव की दहलीज पर खड़े देश में एक एक वोट के लिए संघर्षरत कांग्रेस सरकार ने जैन समुदाय की एक सदी पुरानी इस मांग को मंजूर कर लिया. कांग्रेस उपाघ्यक्ष राहुल गांधी को इसका श्रेय देने के लिए फैसले से एक दिन पहले जैन नेताओं ने गांधी से मुलाकात की और फिर उन्होंने इस मांग को पूरा करने की सरकार से सिफारिश भी कर दी.

Pradeep Jain
ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैनतस्वीर: DW

अगले ही दिन 20 जनवरी को कैबिनेट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून की धारा दो सी के तहत जैन समुदाय को अल्पसंख्यक होने का दर्जा दे दिया. फिलहाल देश की कुल आबादी में जैन समुदाय की दशमलव चार प्रतिशत भागीदारी है. वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक जैनियों की देश भर में आबादी 70 लाख है. मुस्लिम, सिख, पारसी, बौद्ध और इसाई के बाद जैन संप्रदाय अल्पसंख्यक का दर्जा पाने वाला छठा समुदाय बन गया है.

देर आए दुरुस्त आए

फिलहाल जैन समुदाय की बहुलता वाले राज्यों महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पहले से ही जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है. इसकी वजह से इन राज्यों की सरकारों द्वारा अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ इन्हें मिलते हैं. मगर अब केन्द्र सरकार द्वारा यह दर्जा देने से देश भर में केन्द्र सरकार की योजनाओं में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले विशेष लाभ भी मिलने लगेंगे. साथ ही छात्रों को सरकारी वजीफे के अलावा समुदाय के लिए देश भर में कहीं भी शिक्षण संस्थान खोलने की भी अब अनुमति होगी. इससे अब तक व्यवसाय में आगे रहने वाले जैन समुदाय के लिए शिक्षा में पहले से बेहतर अवसर मिल सकेंगे.

एक सवाल जो नजरंदाज नहीं किया जा सकता वह इस फैसले के वास्तविक असर का है. मौजूं सवाल यह है कि राजनीतिक लाभ के लिए किए गए इस फैसले से सियासी दल अपना हित भले ही साध लें लेकिन ब्रिटिश काल से ही सत्ता के तुष्टिकरण की नीति का लाभ उठाते रहे मुस्लिम समुदाय में एक सदी बाद भी बरकरार पिछड़ापन बताता है कि अल्पसंख्यक का दर्जा देने मात्र से किसी समुदाय का भला होने वाला नहीं है.

पिछले अनुभव बताते हैं कि इसाई, सिख और पारसी समुदाय की तरक्की सरकारी मदद से नहीं बल्कि समुदाय के लोगों में आत्मनिभर्रता की भावना से हुई है. साथ ही जैन समुदाय की यह मांग एक सदी से लंबित रहने के बावजूद समुदाय की तरक्की पर कोई असर नहीं डाल सकी. स्पष्ट है कि जिस देश में वोट बैंक की राजनीति सत्ता और सियासतदानों के सिर चढ़ कर बोलती हो वहां आरक्षण के लिए जातियों में बंटे समुदाय खुद को पिछड़ा साबित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं. मगर जैन संप्रदाय के शांति एवं धैर्य के साथ चली इस मुहिम का मंजिल तक पहुंचना अन्य आंदोलनों के लिए नजीर साबित हो सकता है.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा

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