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ऐसा भी भरत नाट्यम

२५ जनवरी २०१४

पैंतालीस वर्षीया रमा वैद्यनाथन की गिनती भरतनाट्यम के शीर्ष कलाकारों में की जाती है. यह नृत्य के कठिन व्याकरण में बंधी प्राचीन शैली है जिसमें नया करने की गुंजाइश कम है. वे स्वयं अपनी शैली विकसित करने में कामयाब रही हैं.

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रमा वैद्यनाथन
तस्वीर: K. Kumar

रमा वैद्यनाथन के नृत्य ने कलाप्रेमियों को इसीलिए चौंकाया क्योंकि उन्होंने देखा कि इस शैली में भी सफलतापूर्वक नए प्रयोग किए जा सकते हैं. आज रमा देश की व्यस्ततम नृत्यांगनाओं में हैं और देश-विदेश में उनकी प्रस्तुतियां होती रहती हैं. यूरोप के अनेक देशों में वह नृत्यप्रेमियों को अपने प्रदर्शनों से मंत्रमुग्ध कर चुकी हैं और छह साल पहले फ्रांस की सीमा से लगे जर्मनी के शहर माइंस में भी उन्होंने अपना नृत्य प्रस्तुत किया था. इसी माह उन्होंने दिल्ली में 'परकाया' की अवधारणा पर आधारित तीन-दिवसीय नृत्य समारोह आयोजित किया जिसमें उनके अतिरिक्त प्रसिद्ध ओडिसी कलाकार माधवी मुद्गल और कथक में पारंगत प्रेरणा श्रीमाली ने अपना नृत्य प्रस्तुत किया. इन तीनों में से प्रत्येक ने अपनी शैली में शेष दो कलाकारों की नृत्यशैली की चीजें, मसलन रमा ने पल्लवी और प्रेरणा ने वर्णम पेश की. इस अवसर पर उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश:

आपका संबंध क्या भरतनाट्यम से जुड़े परिवार से है? नृत्य के क्षेत्र में आपका पदार्पण कैसे हुआ?

नहीं, मेरा परिवार तो भरतनाट्यम से जुड़ा हुआ नहीं था लेकिन मेरी मम्मी भरतनाट्यम सीखना चाहती थीं, पर सीख नहीं पाईं. मेरे पिता सेना में अधिकारी थे और पुणे में नियुक्त थे. उस समय वहां यामिनी कृष्णमूर्ति जी का कार्यक्रम हुआ और नौ माह का गर्भ होने के बावजूद मम्मी वह कार्यक्रम देखने गईं. देखते-देखते वह इतना विभोर हो गईं कि यह भूलकर कि वह गर्भवती हैं, वह एक कुर्सी पर चढ़कर देखने लगीं और लोगों को उन्हें उतारना पड़ा. मैं ही उनके गर्भ में थी और उन्होंने मुझे बताया कि जब वह यामिनी जी का नृत्य देख कर भावविभोर हो रही थीं, तब मैं भी पेट में अंदर लात चला रही थी! उन्होंने वहीं तय कर लिया कि यदि लड़की पैदा हुई तो उसे यामिनी जी से ही भरतनाट्यम सिखवाएंगी. वहां से सीधे उन्हें अस्पताल ही ले जाया गया और मैं पैदा हो गई. संयोग से मेरे पिता का तबादला दिल्ली हो गया और यामिनी जी ने भी उसी समय अपना विद्यालय खोलने का निर्णय लिया. मेरी मम्मी ने इस बारे में एक विज्ञापन देखा और मुझे उनके पास ले गईं. इस तरह मैं छह साल की उम्र में उनकी शिष्या बन गई. आपको बता दूं कि मैं उनकी सबसे पहली शिष्या हूं और उनकी सभी शिष्याओं में मेरा ही अरंगेत्रम सबसे पहले हुआ था.

आपने यामिनी कृष्णमूर्ति से कितने साल तक सीखा? क्या उनके बाद आप किसी और गुरु के पास भी गईं?

पंद्रह साल यामिनी जी से सीखा. फिर उनके जीवन में एक ऐसा दौर आया कि कुछ साल तक उन्होंने सिखाना बंद ही कर दिया. इसी दौरान सिर्फ उन्नीस वर्ष की उम्र में मेरी शादी हो गई. संयोग से मेरी सास सरोजा वैद्यनाथन स्वयं एक बहुत मशहूर भरतनाट्यम कलाकार और बहुत बड़ी गुरु थीं और उनका काफी बड़ा विद्यालय भी था. उनकी कोई बेटी नहीं थी तो वह बहुत खुश हुईं कि बहू के रूप में उन्हें बेटी मिल गई जो खुद भी नृत्यांगना है और उनकी मदद कर सकती है. उन्होंने मुझे नृत्य तो नहीं सिखाया लेकिन एक प्रोफेशनल डांसर के रूप में पूरी तरह से ढाला और बताया कि मंच पर प्रस्तुति कैसे करनी चाहिए, लोगों से कैसे मिलना-जुलना चाहिए, और इसी तरह की अन्य अनेक बातें. उनका बहुत बड़ा योगदान है, क्योंकि मुझे नृत्य तो आता था लेकिन बाहरी दुनिया के बारे में कुछ भी नहीं पता था.

इस समय भरतनाट्यम की क्या स्थिति है? एक रचनाशील कलाकार के रूप में आपके सामने किस तरह की चुनौतियां हैं?

स्थिति तो बहुत ही अच्छी है. मैं तो कहूंगी कि एक प्रकार का भरतनाट्यम बूम देखने में आ रहा है. इतनी अधिक तादाद में नए लोग इसे सीख रहे हैं, भारत में भी और विदेशों में भी, और इतनी बड़ी संख्या में नए कलाकार उभर कर सामने आ रहे हैं कि देखकर बहुत खुशी होती है. जहां तक मेरा सवाल है, तो मैंने अपनी स्वयं की नृत्यशैली विकसित की है जिसका आधार भरतनाट्यम के साथ मेरे भीतर चलने वाला संवाद है. मैंने सचेत ढंग से कुछ नहीं किया है, लेकिन मेरी शैली स्वयं ही विकसित होती गई है. लोग तो कहते हैं कि यदि मेरी शक्ल न भी दिख रही हो, तो भी वे नृत्य देखकर कर बता सकते हैं कि मैं कर रही हूं क्योंकि मेरी शैली में कोई और भरतनाट्यम नहीं करता.

भरतनाट्यम तो एक प्राचीन नृत्यशैली है और इसका आधार भी पौराणिक कथाएं हैं. इसे समकालीन यथार्थ और जीवन से जोड़ने के लिए क्या किया जा सकता है या क्या किया जा रहा है?

देखिये, नृत्य तो एक माध्यम है जिसके जरिये आप जो कुछ भी करना चाहते है, कर सकते हैं. भरतनाट्यम तो एक भाषा है, इसमें क्या कहना है यह तो आपको तय करना है. आप इसमें शिव-पार्वती का लास्य-तांडव, राधा-कृष्ण की रासलीला या कोई और पौराणिक आख्यान, कुछ भी प्रस्तुत कर सकते हैं. और आप चाहें तो एड्स के बारे में जागरूकता, पर्यावरण के सरोकारों, ग्लोबल वार्मिंग, महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर भी भरतनाट्यम कर सकते हैं. युवाओं को आकृष्ट करने के लिए भी यह जरूरी है कि हर नृत्य विधा समकालीन जीवन के सरोकारों के साथ जुड़े. लेकिन इसके साथ ही मैं यह भी चाहूंगी कि हम अपनी प्राचीन संस्कृति और परंपरा को भी न छोड़ें और दोनों का समन्वय करके आगे बढ़ें.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

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