बर्लिन में फिल्मों का मेला
जर्मन राजधानी ने फिल्म जगत के लिए नए साल की शुरुआत कर दी है. दुनिया के चुनिंदा फिल्मी मेलों में बर्लिन पहला होता है. दुनिया भर की इस पर नजरें होती हैं.
पर्दा उठा
करीब 400 फिल्में और एक हजार फिल्मकर्मी. पूरा शहर फिल्ममय हो जाता है. यह मेला है एक्सपर्ट और पेशेवरों का लेकिन फिल्म चाहने वाले आम लोग भी यहां 10 दिनों तक मंडराते रहते हैं.
ग्रैंड होटल बुडापेस्ट
दो विश्व युद्ध के दौरान यूरोप के एक पुराने होटल की जबरदस्त कहानी. अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी ने मिल कर फिल्म बनाई और इसी से हुई मेले की शुरुआत.
मेले में क्लूनी
दूसरे विश्व युद्ध पर बनी जॉर्ज क्लूनी की फिल्म 'मॉन्यूमेंट्स मेन' की खासी तारीफ हो रही है. जाहिर सी बात है दूसरे विश्व युद्ध का जर्मनी से सीधा संबंध है.
जर्मनी को जोश
फिल्म मेला जर्मनी में हो रहा है और जर्मन फिल्में भी काफी चर्चा में हैं. 'दो दुनिया के बीच' नाम की फिल्म का बेसब्री से इंतजार है. फिल्म अफगानिस्तान में तैनात जर्मन सैनिक पर है.
अम्मा और अप्पा
बर्लिनाले डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए भी एक बड़ा प्लेटफॉर्म होता है. यहां जर्मनी की इस फिल्म के बारे में खूब चर्चा हो रही है, जिसमें थोड़ी सी भारत की भी कहानी है.
डेनमार्क की फिल्म
एक बार फिर से लार्स फॉन ट्रियर का नाम चल रहा है, जिनकी फिल्म को यहां दिखाया जा रहा है. फिल्म सेक्स के जुनून में फंसी युवती पर है, जो अपनी जिंदगी की कहानी बताती है.
फिल्मों के राजा
निर्देशक डीटर कॉसलिक ने अपनी टिप्पणियों से मेले को गर्म कर दिया है. बर्लिनाले से पहले उन्होंने कहा कि यह कोई कॉमेडी फिल्मों का मेला नहीं है.
पूरी दुनिया से
हालांकि मेले में कॉमेडी की जगह जरूर होगी. अलग अलग देशों से आए फिल्मकार अपनी गंभीर बातों को रखेंगे, जैसे बेल्जियम के पीटर क्रूगर की फिल्म, "एन- पागलपन की वजह" में.
राजनीति भी
पश्चिमी जगत के फिल्मी मेलों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति की छाप जरूर दिखती है. ईरानी फिल्म 'असाबानी निस्तम' में भी 2009 के चुनावों के बाद की कहानी है. आरोप है कि चुनाव में धांधली हुई थी.
युवाओं की फिल्में
अमेरिकी आदिवासियों पर बनी फ्रांसीसी फिल्म में कनाडा में रह रहे लोगों की कहानी का जिक्र है. फिल्म काफी दिनों से चर्चा में है.
आलीशान आयोजन
बर्लिन में होने वाले इस फिल्मी मेले को दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म फेयर कहते हैं क्योंकि यह कई जगहों पर एक साथ आयोजित किया जाता है. करीब 15 साल से मुख्य कार्यक्रम पोस्टडामर प्लाट्ज में हो रहा है.
रोशनी और छाया
इस बार 20वीं सदी के सबसे खराब दौर यानी 1915-1950 के बीच की 40 कहानियों को खास तौर पर प्रदर्शित किया जा रहा है. यहां प्राकृतिक और कृत्रिम लाइटों ने खास रोल अदा किया है.
फिल्मों का खजाना
1920 में जर्मनी में बनी फिल्म 'डॉक्टर कालिगिरी का खजाना' पर भी नजरें हैं. इतिहास में इस फिल्म की खास जगह है. इसे नए तौर पर तैयार किया गया है और नया संगीत भी दिया गया है.