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युवाओं को कर्ज और शिक्षा की क्वालिटी

१८ फ़रवरी २०१४

भारत की आबादी में आधे से अधिक यानी लगभग 60 करोड़ नौजवान हैं. बीते दो दशक में आर्थिक उदारीकरण और तमाम प्रयासों के बावजूद भारत विकसित देश का दर्जा हासिल करने में विफल रहा है. कारण है युवाओं की क्षमता का इस्तेमाल न हो पाना.

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तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपने अंतरिम बजट में तकनीकी शिक्षा के लिए सस्ते लोन का दायरा बढ़ा कर युवाओं को विकास प्रक्रिया में भागीदार बनाने की पहल की है. आम चुनाव से ठीक पहले पेश किए गए इस बजट की लोकलुभावन फितरत से इंकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में सवाल उठता है कि मंदी के दौर से गुजर रही दुनिया सहित भारत की अर्थव्यवस्था के लिए इस तरह के बजट प्रावधान कितने हितकारी होंगे. इस लिहाज से युवाओं को आर्थिक विकास प्रक्रिया से जोड़ने के लिए बेशक सस्ते कर्ज की पहल कारगर है.

किसे होगा फायदा

सरकार की अपनी ही रिपोर्ट बताती है कि तकनीकी शिक्षा के लिए सस्ते कर्ज का लाभ अब तक 25 लाख युवा उठा रहे थे. अब इसमें उन युवाओं को भी शामिल कर लिया गया है जिन्होंने उच्च शिक्षा सब्सिडी योजना के तहत 2009 से पहले ऋण लिया था. एक अनुमान के मुताबिक इन छात्रों की संख्या लगभग 9 लाख है. इस प्रकार अब तकनीकी शिक्षा ऋण योजना का दायरा बढ़कर 34 लाख से अधिक हो जाएगा. आगामी वित्त वर्ष के लिए सरकार ने इस योजना के लिए 20.81 अरब रुपये मंजूर किए हैं. इसके इस्तेमाल से छह लाख रुपये सालाना आय वाले छात्रों को 7.5 लाख रुपये का लोन बिना बैंक गारंटी से मिल सकेगा.

देश भर में उच्च और तकनीकी शिक्षा के लिए सस्ते कर्ज के जरूरतमंद युवाओं की संख्या कम से कम साढ़े तीन करोड़ है. स्पष्ट है कि सरकार अब तक जरुरतमंद छात्रों के महज 10 फीसदी छात्रों को ही अपने दायरे में ले पाई है. ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि सबको खुश करने की कोशिश में कार, बाइक, मोबाइल फोन, टीवी, फ्रिज और एसी जैसी लक्जरी उपभोक्ता वस्तुओं को सस्ता करने के लिए हजारों करोड़ रुपये दांव पर लगाना कितना समझदारी भरा है.

Palaniappan Chidambaram
तस्वीर: AP

सरकार सिर्फ कर्ज देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती है. कर्ज देने के बाद उसकी उपयोगिता को परखना जरुरी है. मगर अचंभे की बात है कि भारत में शिक्षा और कृषि ऋण योजनाओं का लाभ मापने की व्यवस्था ही सरकार के पास नहीं है. रिजर्व बैंक के बैंकिंग लोकपाल की रिपोर्ट के आधार पर सिर्फ बकायदारों से ऋण वसूली की कामयाबी दर के आधार पर ही इन ऋण योजनाओं की कामयाबी का अनुमान लगाया जा सकता है.

सवाल गुणवत्ता पर भी

आंकड़े बताते हैं कि भारत में सभी प्रकार की ऋण योजनाओं में कर्ज अदायगी का ग्राफ खराब होने की बात सार्वजनिक है. किंतु शिक्षा और कृषि ऋण योजनाओें का हाल बदतर है. माना जाता है कि किसान और छात्र इन योजनाओं की ओर सिर्फ पैसा लेने के मकसद से आकर्षित होते हैं. इसी वजह से सरकार और बैंक या फाइनेंस एजेंसियां इन्हें लोन देने से कतराते हैं. समस्या गंभीर है और दलील जायज है. लेकिन ऐसी दलीलें सरकारों को उनकी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं कराती.

शिक्षाविद प्रो. यशपाल कहते हैं कि बात चाहे नौजवानों की हो या किसानों की, जब तक लोगों को विकास प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाएगा तब तक हालात ऐसे ही रहेंगे. बीते साठ सालों में नई पीढ़ी को आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर सिर्फ सरकारी मदद की बैसाखी थमाई गई हैं. सरकारी लोन से लेकर छात्रों को लैपटॉप बांटने तक सरकारों का मकसद सिर्फ एक खास तबके को लुभाना भर रहा है. इस वितरण के पीछे इस्तेमाल के प्रभाव और तौर तरीके शामिल ही नहीं किए जाते हैं. वह कहते हैं कि सोच समझ का स्तर सुधारने की शुरुआत शीर्ष स्तर यानि कि हुक्मरानों से शुरु होगी तभी बात बन सकती है.

जहां तक गुणवत्ता की बात है, तो इस मामले में भी निजीकरण के गुणदोषों को परखना भी जरूरी है. भारत में तकनीकी शिक्षा को लेकर आज भी क्रेज सिर्फ आईआईटी का ही है. इस तिलिस्म को निजी क्षेत्र के भारीभरकम संस्थान भी नहीं तोड़ पाए हैं, जबकि हर छोटे बड़े शहर में इंजीनियरिंग कॉलेज और आईटीआई की भरमार हो गई है. निसंदेह इनकी मदद से रोजगार के अवसर तो युवाओं को मिले हैं लेकिन गुणवत्ता के मामले में ग्राफ नीचे ही गया है. भारत में सूचना क्रांति के मजबूत स्तंभ माने गए सैम पित्रोदा ने हाल ही में शिक्षा के निजीकरण को गुणवत्ता के लिहाज से घाटे का सौदा बताया था. उनकी दलील थी कि बाजारवादी विस्तार के लिहाज से यह पहल भले ही मुनाफे का सौदा रहा हो लेकिन तकनीकी शिक्षा के मानदंड को यह पूरा करने में ये नाकाम रहे हैं.

मकसद अधूरा

सरकारी या गैर सरकारी क्षेत्र की किसी योजना के कारगर होने की गारंटी सिर्फ उसे लागू करने के पीछे छुपे विजन पर टिकी होती है. इसका सबसे मौजूं उदाहरण सरकार द्वारा पोषित आईआईटी और निजी क्षेत्र के टीसीएस या बिट्स जैसे संस्थान हैं. मतलब साफ है न हर सरकारी संस्थान बेहतर है और ना ही हर निजी संस्थान सिर्फ डिग्रियां बांटने का केन्द्र है. टाटा और बिड़ला समूह के तकनीकी शिक्षा संस्थान अगर आईआईटी और आईआईएम को चुनौती दे रहे हैं तो इसके पीछे इन संस्थानों का संचालन कर रही गवर्निंग बॉडी की भूमिका एकमात्र कारक है.

सरकार आईआईटी और आईआईएम का सिर्फ वित्तपोषण करती है जबकि इनका संचालन करने वाली संस्था में देश के चुनिंदा मैनेजमेंट गुरु मौजूद होते हैं. सरकारी और गैरसरकारी अन्य सभी संस्थानों को भी विभिन्न क्षेत्रों के सिद्धहस्त लोगों के हाथों संचालित करने से यह मकसद हासिल किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए महज किसी को लुभाने के बहाने रेवडि़यां बांटने का खेल खत्म कर साफ सुथरी मंशा के साथ आगे बढ़ना होगा.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा

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