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विरासत और हकीकत से लड़ता एशिया

१३ मार्च २०१४

भारतीय लेखक पंकज मिश्रा को लाइपजिग पुस्तक मेले में यूरोपीय समझ पुरस्कार से नवाजा गया है. अपनी नई किताब के जरिए मिश्रा इस सवाल का जवाब ढूंढ रहे हैं कि क्या एशिया वाकई में पश्चिम से आजाद हो पाया है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

दुनिया भर में लोग एशिया और उसकी बढ़ती राजनीतिक और आर्थिक अहमियत की बात कर रहे हैं लेकिन ऐसे कम ही हैं जो सचमुच एशिया की आवाज सुन रहे हैं. भारतीय लेखक पंकज मिश्रा की किताब "फ्रॉम द रुइन्स ऑफ एंपायर" ने इसी उलझन को दिखाया है. अपनी किताब में उन्होंने एशिया की आजादी तक लड़ाई का उल्लेख किया है.

मिश्रा की तारीफ कर रहे जर्मन लेखक इल्या त्रोयानोव ने पुरस्कार समारोह में बताया कि "इस किताब ने यूरोप के सामने आईना रखा है, जिसमें यूरोप हैरानी के साथ अपने उस अस्तित्व को पहचानता है जिसने अतीत में किसी की यातना की थी, लोगों का शोषण किया और जनसंहार भी किए." इस तरह अपने आप को पहचानकर यूरोप अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार हो सकता है और इसके जरिए उपनिवेशवाद के वक्त में हुए अत्याचार और शोषण को माफ किया जा सकता है. पंकज मिश्रा की किताब इस दिशा में पहला कदम है.

Pankaj Mishra Publizist aus Indien Archiv 2008
पंकज मिश्रातस्वीर: picture alliance/Effigie/Leemage

ब्रिटिश हुकूमत के खंडहर

पंकज मिश्रा की किताब के मुख्य पात्र तीन एशियाई देशों के दर्शनशास्त्री हैं. इनमें ईरान में 19वीं सदी के बुद्धिजीवी जमाल अल दीन अल अफगानी, चीन के बुद्धिजीवी लियांग चिचाओ और भारत के रबींद्रनाथ टैगोर शामिल हैं. तीनों बुद्धिजीवियों ने अपनी तरह से पाश्चात्य सभ्यता से संवाद किया. इन्हीं की वजह से यूरोप एक तरह से एशिया के अस्तित्व का हिस्सा बन गया. उस वक्त यूरोप ने कुछ ही दशकों के भीतर विश्व के ज्यादातर हिस्सों पर कब्जा कर लिया था. 20वीं सदी की शुरुआत में यूरोप के शक्तिशाली देशों ने एशिया और अफ्रीका को पूरी तरह अपने नियंत्रण में कर लिया था. तुर्की के उसमानी शासक, भारत के मुगल और चीन का चिंग खानदान, कोई भी यूरोप के आक्रमणों को रोक नहीं सका. अपनी किताब में मिश्रा लिखते हैं, "बदलाव की तीव्र गति और इस बदलाव की वजह से पैदा होने वाली बेबसी, यह एशिया के देशों का सामूहिक अनुभव था. पश्चिमी देशों के साथ छोटे से छोटे संपर्क बड़े बदलाव लाते और यह बदलाव अकसर बुरे के लिए होते."

एशिया का पूरी तरह से दमन हो चुका था. यह बदलाव आर्थिक, राजनीति और सेना के स्तर पर तो हुए ही, लेकिन इनसे एशिया के नैतिक मूल्यों पर भी असर पड़ा. "उपनिवेशवाद से पीड़ित अपने पर हुकम करने वालों पर गुस्सा तो करते ही थे, लेकिन उन्हें अपने शासकों से जलन भी होती थी."

इतिहास में बदलाव

एशियाई देशों के सामूहिक अनुभव से हर देश से एक खास तरह की प्रतिक्रिया उभरने लगी. ईरान में अल अफगानी को लगा कि शायद इससे पूरी एशिया में इस्लाम को लाया जा सकेगा और एशिया के लोग एक होकर अपने शासकों पर जीत हासिल कर सकेंगे. चीन में लियांग चिचाओ का मानना था कि अगर एशियाई देश अपनी पारंपरिक जीवनशैली को पूरी तरह बदलकर पश्चिमी सभ्यता जैसा बना देंगे तो उपनिवेशक उनके नियंत्रण में आ जाएंगे. भारत में टैगोर का मानना था कि एशिया में एक अलग तरह की, एशियाई तरह की जीवनशैली ही काम करेगी, "हम पश्चिम की होड़, उसके अभिमान और उसकी क्रूरता को नहीं अपनाएंगें." लेकिन अगर भारत ने टैगोर के शब्दों को भुला दिया तो अल अफगानी के सिद्धांत ओसामा बिन लादेन और अल कायदा का महामंत्र बन गए.

Buchmesse Leipzig - Pankaj Mishra
लाइपजिग पुस्तक मेले में मिश्रातस्वीर: picture-alliance/dpa

मिश्रा अपनी किताब में कई बार इस बात पर जोर देते हैं कि एशियाई देशों को अपने तरीके और अपनी जीवनशैली और संस्कृतियों से मिलता जुलता विकास का मॉडल अपनाना चाहिए, लेकिन किताब के अंत में वह खुद अपने इस तर्क के खिलाफ जाते दिखते हैं. उनका मानना है कि एशिया की सफलता इस तथ्य पर आधारित है कि उसके देशों ने पश्चिमी देशों की सफलता के तौर तरीके अपनाए और पश्चिमी सोच अपनाई. चीन ने मार्क्सवाद अपनाया, भारत लोकतांत्रिक बना और अब पूरे एशिया में पूंजीवाद का राज है. पूरा एशिया पश्चिमी देशों के मध्यवर्ग का सपना देख रहा है और यह सोच एशियाई देशों की संस्कृति से नहीं निकली है. इसकी कीमत एशिया को चुकानी होगी. अनंत आर्थिक विकास का नतीजा केवल कुंठा और क्रोध की शक्ल में ही निकलेगी.

रिपोर्टः रोडियॉन एबिगहाउजेन/एमजी

संपादनः ओंकार सिंह जनौटी