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भारत में व्यक्ति केंद्रित चुनाव प्रचार

२० मार्च २०१४

भारत में लोकसभा चुनाव का प्रचार गति पकड़ चुका है. लेकिन वह लगभग पूरी तरह व्यक्ति-केन्द्रित है और इस बात का प्रमाण कि भारतीय राजीनतिक विमर्श से विचारों की विदाई हो चुकी है.

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तस्वीर: Getty Images/Afp/Narinder Nanu

मतदान का पहला चरण शुरू होने में सिर्फ सत्रह दिन बचे हैं लेकिन अभी तक किसी प्रमुख राजनीतिक दल ने चुनाव घोषणापत्र भी जारी नहीं किया है. यानि अभी तक मतदाता को विभिन्न राजनीतिक दलों की नीतियों और उनके मंतव्यों के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है. हां, यदि उम्मीदवारों के चयन को उनकी नीतियों या मंतव्यों का सूचक माना जाए तो कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ होने के तमाम दावों के बावजूद सभी राजनीतिक दल पुरानी लीक पर ही चल रहे हैं और केवल एक आधार पर अपने उम्मीदवारों का चयन कर रहे हैं और वह आधार है उनके जीतने की संभावना.

कांग्रेस और बीजेपी ने अब तक जितने लोगों को लोकसभा चुनाव में टिकट दिया है, उनमें से तीस प्रतिशत यानि लगभग एक तिहाई लोगों पर आपराधिक मामलों में मुकदमे चल रहे हैं. बीजेपी ने तो कुछ माह पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुए सांप्रदायिक दंगों में आरोपी दो नेताओं को भी टिकट देने की घोषणा कर दी है.

Indien Wahlkampf Rahul Gandhi
करिश्मे पर भरोसातस्वीर: picture-alliance/AP

कांग्रेस की कार्यशैली को देखते हुए लगता है कि उसे अपने दस साल के कार्यकाल के दौरान हुए रिकॉर्डतोड़ भ्रष्टाचार से कोई डर नहीं है. यदि होता तो वह भ्रष्टाचार के आरोप के कारण रेलमंत्री के पद से अलग होने वाले पवन बंसल को चंडीगढ़ से अपना उम्मीदवार घोषित न करती. पार्टी को राहुल गांधी के व्यक्तित्व के करिश्मे पर जरूरत से ज्यादा भरोसा है जबकि अभी तक इसका असर कहीं भी ऐसा नहीं दिखा है जो चुनाव में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन के प्रति आश्वस्त करता हो.

उसे मनरेगा और आधार जैसी योजनाओं की लोकप्रियता पर भी काफी भरोसा है लेकिन दिल्ली में मिली करारी हार ने इस पर प्रश्नचिह्न लगाया है. कांग्रेस की पतली हालत को देखते हुए यह हैरत की बात नहीं कि अधिकांश चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक टिप्पणीकार कांग्रेस को मिलने वाली सीटों की संख्या को दो अंकों में सिमटता देख रहे रहे हैं. यानि अगर उसे 100 सीटें भी मिल जाएं तो यह उनकी आशा से अधिक ही होगा.

बीजेपी ने मान लिया है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए हैं. उसका पूरा प्रचार उनके व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द केन्द्रित है. उनकी छवि देश को बचाने वाले नेता की बनाई जा रही है. गुजरात के मुस्लिमविरोधी दंगों की कोई चर्चा नहीं की जाती और यह भी नहीं बताया जाता कि धार्मिक, जातीय और सांस्कृतिक विविधता वाले देश की एकता को मजबूत करने के लिए नरेंद्र मोदी क्या करेंगे. उसके द्वारा घोषित उम्मीदवारों में दो या तीन ही मुस्लिम हैं. जिस पार्टी में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय, जिसकी आबादी लगभग सत्रह करोड़ मानी जाती है, का इतना अविश्वास हो कि उसके सदस्य उसमें शामिल ही न होते हों, और यदि होते भी हों तो उन्हें अपेक्षित महत्व न दिया जाता हो, वह पार्टी किस तरह से समूचे देश का प्रतिनिधि होने का दावा कर सकती है?

Indien Wahlkampf Narendra Modi
व्यक्तित्व पर केंद्रित प्रचारतस्वीर: Indranil Mukherjee/AFP/Getty Images

जहां तक सुशासन का सवाल है तो मोदी के गुजरात मॉडल को लगातार उछाला जा रहा है, लेकिन यह नहीं बताया जा रहा कि इसे पूरे देश पर कैसे लागू किया जाएगा. दूसरे इस मॉडल की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने वालों का भी कोई संतोषजनक जवाब देने की कोशिश नहीं की जा रही. ऊपर से बीजेपी के अंदरूनी झगड़े भी अखबार की सुर्खियां बन रहे हैं जो चुनावी माहौल में पार्टी की ताकत को बढ़ा नहीं सकते. वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं की पार्टी में वापसी के खिलाफ सार्वजनिक रूप से विचार व्यक्त कर चुकी हैं तो अब वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी अपने चुनावक्षेत्र को लेकर क्षुब्ध हैं. उन्हें विश्वास नहीं कि गुजरात के गांधीनगर में पार्टी कार्यकर्ता उनके लिए जी-जान से काम करेंगे. इसलिए वह भोपाल से चुनाव लड़ना चाहते हैं. पर पार्टी तैयार नहीं. ऐसे में लोग सवाल तो पूछेंगे ही कि जब आडवाणी को ही मोदी पर भरोसा नहीं, तो फिर पूरा देश उन पर भरोसा कैसे करे?

बीजेपी का इतिहास रहा है कि वह अपने पक्ष में लहर होने का जोर-शोर से प्रचार करती है और फिर स्वयं ही उस प्रचार का शिकार हो जाती है. इस बार भी ऐसा ही होता दिख रहा है. प्रचार है कि मोदी के पक्ष में पूरे देश में हवा है, लहर ही नहीं बल्कि सुनामी है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि स्वयं मोदी को इस प्रचार पर भरोसा नहीं. वह एक नहीं बल्कि दो सीटों से चुनाव लड़ना चाहते हैं. सभी जानते हैं कि ऐसा तभी किया जाता है जब उम्मीदवार को अपनी जीत पर पूरा भरोसा न हो. पार्टी के अन्य नेता भी सुरक्षित सीटें खोज रहे हैं जबकि लहर और सुनामी की स्थिति में तो यदि ठूंठ को भी खड़ा कर किया जाए तो वह जीत जाता है.

क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने जोड़-तोड़ में लगी हैं. उन्हें पता है कि त्रिशंकु लोकसभा में उनका महत्व बड़ी पार्टियों से भी अधिक होगा. वामपंथी पार्टियों की ताकत बढ़ने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे. हिन्दी प्रदेश में उनकी हालत पहले से भी अधिक पतली है वरना मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कानपुर से सांसद रही सुभाषिणी अली को पश्चिम बंगाल में बैरकपुर से खड़ा न करती.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा