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'इलेक्शन टूरिज्म'

१२ मई २०१४

चुनाव 2014 की मीडिया कवरेज देखकर लगा चुनाव सिर्फ यूपी के बनारस में ही हुआ. भाषण, रैलियां और रोड-शो तो छोड़ ही दीजिए, गंगा पर नाव की सवारी और चुनावी चर्चाओं की होड़ दिखी. मानो चुनाव विश्लेषण न हुआ, पर्यटन हो गया.

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Indien Wahlen
तस्वीर: DW/S. Wahhed

वाराणसी इन चुनावों का कई ढंग का फ्लैश प्वाइंट बना. केजरीवाल, मोदी और राहुल की वजहें तो थीं ही, स्थानीय सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों ने भी उसे रोचक बना दिया. अस्सी घाट, बीएचयू, लंका गेट, पप्पू की चाय की दुकान, पान, साड़ियां, बुनकर, गलियां, शहनाई, बिस्मिल्लाह, नाव और गंगा- चुनावी कवरेज में और नेताओं की आवाजाही में ये संज्ञाएं विशेषण बनकर आती जाती रहीं, एक ऐसा समां बंधा कि चुनाव चर्चा चुनाव पर्यटन में तब्दील हो गई. टीवी चैनलों के कमोबेश सभी सूरमा वहां डटे. जानकार लेखक पत्रकार घुमक्कड़ सब चले आए. एक चैनल की परिचर्चा-बस ऐसे भर कर आई मानो उसमें पर्यटक आए हों. चलो बनारस. वहां चुनाव भी मिलता है.

राजनीति का ऐसा पर्यटनीकरण पहली बार हुआ है. और बनारस ही क्यों. जहां जहां मीडिया अपने लायक सनसनी और चटपटापन देख पाया वहां कवरेज की उसकी पर्यटक शैली हावी रही. एक चैनल की प्रतिनिधि बिहार के एक गांव के एक अत्यंत गरीब घर को दिखाती हुई कहती हैं, “आह, ये देखिए, कितना सुंदर चूल्हा. और ये मुर्गियां देखिए. ये भी यहां पर हैं.” बनारस में मीडिया बस की छत पर बैठे एक चुनाव विश्लेषक गदगद थे और धन्यवाद पर धन्यवाद देते जाते थे कि चलो बनारस का समां देखने का मौका मिल गया. एक रिपोर्टर ने पान की दुकान पर पहले पान लगवाया और फिर बहुत सावधान मुद्रा में लगभग शरमाते हुए पान को मुंह के एक कोने में दबाकर कुछ डॉयलॉगनुमा बोला. बनारस के लोग भी वैसे ही गंभीर बने हुए दिखे, वो उनकी अदा थी. नजारे देख देखकर उन्होंने हैरान परेशान होना छोड़ दिया था. वो पर्यटकों का तहे दिल से स्वागत करते थे और जरूरत पड़ी तो बतकही से मनोरंजन भी.

हिंदुस्तान की चुनावी रंगतें देखने लायक होती हैं. वहां कई रोचक शेड्स हैं. संस्कृति, जाति, भूगोल के कई उलझे लिपटे समीकरण हैं. एक सिरा खोलो तो दूसरा उलझ जाता है. चुनाव की इन जटिलताओं का अपना एक सौंदर्य रहा है. लेकिन इन चुनावों में इन सूत्रों पर अटकने की फुर्सत बहुत कम थी. पर्यटन छूट जाता. ज्यादातर मीडिया उम्मीदवारों के साथ 24 घंटे और कई घंटे करता तो था लेकिन उनमें उम्मीदवार के प्रताप का अदृश्य वर्णन ही होता रहा. वोट देने वालों का प्रताप बस कुछ ऐसे ही तलाशा जाता रहा कि “बताइये किसे वोट देंगे? अच्छा इन्हें वोट देंगे, इन्हें क्यों, उन्हें क्यों नहीं?”

इलेक्शन टूरिज्म

चुनाव को भरपूर पर्यटनीय बनाते हुए एक तरफ नेता और मीडिया थे तो दूसरी ओर वास्तविक पर्यटक थे. उनकी सैर की थीम थी, "इलेक्शन टूरिज्म". अमेरिका और अन्य जगहों के टूरिस्टों को टूर-ऑपरेटरों ने चुनावी रंगतें देखने की दावत दी, चुनावी छटाओं का ऐसा वर्णन किया कि विदेशी भी उतर आए. उन्होंने चुनाव भी देखा और पर्यटन भी किया. बाज मौकों पर तो कई विदेशी टूरिस्ट मतदान की अपील वाले पोस्टर उठाए नजर आए. बनारस में ही देखें तो विदेशी सैलानियों की आमदरफ्त जनवरी से लेकर अब तक काफी बढ़ गई. पिछले दो साल के मुकाबले मार्च महीने में ही दोगुने सैलानी बनारस में थे. टोपी झंडों और चुनाव निशानों और नारों के बीच.

चुनावी पर्यटकों के लिए पैकेज टूर में वाराणसी के अलावा आगरा, लखनऊ, मुंबई, गोवा, अहमदाबाद और चंडीगढ़ को भी शामिल किया गया. जो दक्षिण के हिस्सों में जाना चाहते थे उनके लिए बैंगलुरू से लेकर चेन्नई और त्रिवेंदम तक के ऑप्शन थे. इस तरह देशी विदेशी पर्यटकों के लिए ये पूरे दो महीनों से ज्यादा का वक्त भरपूर मनोरंजन वाला रहा है. सैलानियों का भारत जैसे महादेश के उत्सव सरीखे चुनावों को देखने आना तो बनता ही है, पहचान और राजस्व के लिहाज से भी ये अच्छा ही है. लेकिन चुनाव महज पर्यटन तो है नहीं. ये लाखों करोड़ों लोगों की जिंदगियों से जुड़ी एक गंभीर प्रक्रिया है. इसकी अधिकांश मीडिया कवरेज में पर्यटन का पुट कम होता और बुनियादी सरोकार दिखते तो कुछ सार्थकता रहती.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः आभा मोंढे