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पत्नी के इनकार पर भी सेक्स करने वाला पति रेपिस्ट माना जाएगा?

१६ जनवरी २०२३

मैरिटल रेप को अपराध बनाए जाने संबंधी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 15 फरवरी तक अपना पक्ष बताने को कहा है. मुख्य न्यायधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही है.

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सेक्स को वैवाहिक संबंधों का अहम हिस्सा माना जाता है. ऐसे में पारंपरिक धारणा कहती है कि पति को शारीरिक/यौन संतुष्टि देना पत्नी का फर्ज है और इसमें सहमति-असहमति का सवाल नहीं आता. ऐसे में रेप कानूनों के अंतर्गत मैरिटल रेप को शामिल ना करना, पिछली सदी में कई देशों में सामान्य था.
सेक्स को वैवाहिक संबंधों का अहम हिस्सा माना जाता है. ऐसे में पारंपरिक धारणा कहती है कि पति को शारीरिक/यौन संतुष्टि देना पत्नी का फर्ज है और इसमें सहमति-असहमति का सवाल नहीं आता. ऐसे में रेप कानूनों के अंतर्गत मैरिटल रेप को शामिल ना करना, पिछली सदी में कई देशों में सामान्य था. तस्वीर: Saikat Paul/Pacific Press/picture alliance

याचिकाओं पर निर्णायक सुनवाई 21 मार्च से शुरू होगी. यह मामला दिल्ली हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. जनवरी 2022 में दिल्ली उच्च न्यायालय की दो जजों की एक डिविजन बेंच ने मैरिटल रेप को अपराध बनाए जाने संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की थी. अदालत के आगे पेश हुई याचिकाओं में इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) की धारा 375 में दिए गए अपवादों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी. मई 2022 में कोर्ट ने फैसला तो सुनाया, लेकिन दोनों जजों की राय बंटी हुई थी. जस्टिस राजीव शकधर ने जहां सेक्शन 375 में दी गई छूट को असंवैधानिक माना, वहीं जस्टिस सी हरि शंकर ने इसे वैध कहा.

जस्टिस शकधर का कहना था कि किसी भी समय पर सहमति वापस लेने का हक, महिलाओं की जिंदगी और आजादी के अधिकार के बुनियादी तत्व का हिस्सा हैं. जबकि जस्टिस शंकर ने कहा कि "सेक्स की जायज उम्मीद" शादी का एक ऐसा पक्ष है "जिसे रोका जाना मुमकिन नहीं है." जस्टिस शकधर अपवाद को खत्म किए जाने के पक्ष में थे, वहीं जस्टिस शंकर का मत था कि पति-पत्नी के बीच हुए सेक्स को रेप नहीं माना जा सकता है.

बंटे हुए फैसले की सूरत में अक्सर मामला बड़ी बेंच के आगे पेश होता है. इसके अलावा अहम मुद्दों से जुड़े मामलों में एक रास्ता उच्चतम अदालत में जाने का होता है, ताकि सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक आधार पर व्याख्या करके फैसला सुनाए. ऐसे में जजों की अलग-अलग राय के बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने केस को सुप्रीम कोर्ट ले जाने के लिए सर्टिफिकेट ऑफ अपील जारी कर दिया.

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रेप के कानूनों में मैरिटल रेप की छूट

आईपीसी की धारा 375 में बलात्कार संबंधित कानूनों की व्यवस्था है. इसमें बलात्कार की परिभाषा दी गई है. इसमें सहमति की सात श्रेणियां हैं, जिनका उल्लंघन करना पुरुष द्वारा बलात्कार किए जाने के दायरे में आएगा और आपराधिक माना जाएगा. मगर सेक्शन 375 में मैरिटल रेप शामिल नहीं है. इसकी छूट देते हुए धारा 375 (अपवाद 2) के अनुसार, पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ किया गया सेक्शुअल इंटरकोर्स या यौन क्रिया, अगर पत्नी 18 साल से कम की नहीं है तो बलात्कार नहीं माना जाएगा.

इस छूट की वजह से अगर पति अपनी पत्नी की असहमति के बावजूद उसके साथ सेक्स करता है, तो भी यह रेप नहीं माना जाएगा. महिला अधिकार कार्यकर्ता और जानकार आपत्ति करते हैं कि यह छूट, महिला के वैवाहिक होने या ना होने के आधार पर सहमति के उसके अधिकार का उल्लंघन करता है. साथ ही, सेक्स को पत्नी का पारंपरिक और अहम कर्तव्य माने जाने का भी विरोध होता है. कई कार्यकर्ता दलील देते हैं कि कानून की नजर में बलात्कारी, हर हाल में बलात्कारी माना जाना चाहिए, भले ही उसका पीड़ित से कोई रिश्ता हो, भले ही वो पीड़ित का पति ही क्यों ना हो.

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महिला अधिकार आंदोलनों का असर

सेक्स को वैवाहिक संबंधों का अहम हिस्सा माना जाता है. ऐसे में पारंपरिक धारणा कहती है कि पति को शारीरिक/यौन संतुष्टि देना पत्नी का फर्ज है और इसमें सहमति-असहमति का सवाल नहीं आता. ऐसे में रेप कानूनों के अंतर्गत मैरिटल रेप को शामिल ना करना, पिछली सदी में कई देशों में सामान्य था. 60 और 70 के दशक में तेज हुए फेमिनिस्ट आंदोलनों के बाद लैंगिक और यौन अपराधों पर विमर्श बढ़ा. महिलाओं के अधिकार और उनकी आजादी के अलग-अलग पक्षों पर बहस तेज हुई.

फेमिनिस्ट मुहिमों और रेप-विरोधी आंदोलनों में इस सवाल ने भी जोर पकड़ा कि यौन आजादी और अपने शरीर पर अधिकार भी महिला अधिकारों का एक अहम हिस्सा है. और, शादीशुदा औरतों को इन अधिकारों की परिधि से कतई दूर नहीं रखा जा सकता है. नतीजतन कई देशों में मैरिटल रेप को भी आपराधिक किए जाने की कवायद शुरू हुई. अनुमान है कि 150 से ज्यादा देशों में मैरिटल रेप को किसी-ना-किसी रूप में अपराध की श्रेणी में रखा गया है. इसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, दोनों तरह के उपाय शामिल हैं. मगर भारत उन देशों में शामिल है, जहां मैरिटल रेप को विशेष प्रावधान बनाकर रेप कानूनों से छूट दी गई है.

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रेप कानूनों में सुधार 

अगर जर्मनी की बात करें, तो यहां भी लंबे वक्त तक पारंपरिक और रूढ़िवादी नजरिया कायम रहा. इसमें महिला से बतौर पत्नी उसके "वैवाहिक दायित्व" पूरी करने की अपेक्षा की जाती थी. मसलन, 1966 में संघीय अदालत ने अपने एक फैसले में कहा, "एक पत्नी बस निश्चेष्ट रहकर इंटरकोर्स होने देने से अपनी वैवाहिक जिम्मेदारियां नहीं निभाती. अगर अपने स्वभाव या किसी और वजह से, जिसमें शादीशुदा पार्टनर्स की अनुभव की कमी शामिल है, वह मैरिटल सेक्स में संतुष्टि नहीं हासिल कर पाती, तब भी शादी की संस्था के तहत उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह प्यार दिखाए, त्याग करे." इसमें वैवाहिक संस्था का तकाजा देते हुए शादीशुदा महिला के बेरुखी, उदासीनता या अरुचि दिखाने की भी मनाही बताई गई थी.

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आगे के दशकों में जर्मनी में क्रिमिनल कोड के भीतर कई सुधार किए गए. महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों पर जागरूकता बढ़ी. लंबी मुहिम के बाद आखिरकार 1997 में मैरिटल रेप को क्रिमिनलाइज किया गया. इसके बाद भी रेप कानूनों में सुधार जारी रहा. 2016 में ऐसे ही एक बड़े फैसले में जर्मन संसद ने बलात्कार की परिभाषा से जुड़े नए कानून को मंजूरी दी थी.

इसमें स्पष्ट किया गया था कि भले ही पीड़ित संघर्ष ना करे, लेकिन "ना का मतलब ना ही होगा." इस फैसले से पहले क्रिमिनल कोड की धारा 177 के मुताबिक, पीड़ित का ना कहना मुलजिम को दोषी ठहराने के लिए काफी नहीं. जानकार इसी तरह कानूनों में क्रमिक सुधारों की बात करते हैं. उनका कहना है कि समय, परिस्थिति और समाज की बदलती चेतनाओं और जागरूकताओं के मद्देनजर कानून में समग्र सुधार जरूरी है.